Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १५ : सू. ४४-५०
चौथा मासखमण-पद
४४. गौतम ! मैंने राजगृह नगर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर चतुर्थ मासखमण स्वीकार कर विहार करने लगा ।
४५. उस बाहिरिका नालंदा के न अति दूर और न अति निकट कोल्लाक नाम का सन्निवेश था—सन्निवेश वर्णक । उस कोल्लाक सन्निवेश में बहुल नाम का ब्राह्मण रहता था— आढ्य यावत् बहुजन के द्वारा अपरिमित, ऋग्वेद यावत् अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक -संबंधी नयों में निष्णात था ।
४६. बहुल ब्राह्मण ने कार्तिक चातुर्मासिक प्रतिपदा के दिन को मधु घृत- संयुक्त परमान्न से ब्राह्मणों को आचमन कराया- भोजन कराया।
४७. गौतम ! मैंने चतुर्थ मासखमण के पारण में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया । प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोल्लाक सन्निवेश था, वहां आया, आकर कोल्लाक सन्निवेश के उच्च नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए बहुल ब्राह्मण के घर में मैंने अनुप्रवेश किया । ४८. बहुल ब्राह्मण ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण - -मन वाला, परम सौमनस्य युक्त तथा हर्ष से विकस्कर - हृदय वाला हो गया। वह शीघ्र ही आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा, उतरकर पादुका को खोला, खोल कर एक पट वाले वस्त्र से उत्तरासंग किया, उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर - मैं महावीर को विपुल मधु- घृत-संयुक्त परमान्न से प्रतिलाभित करूंगा, यह सोच कर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ ।
४९. बहुल ब्राह्मण ने द्रव्य शुद्ध, दाता शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध, त्रिविध त्रिकरण से के शुद्धदान द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया, उसके घर पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे- रत्नों की धारा निपात वृष्टि, पांच वर्णवाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजीं, आकाश के अंतराल में 'अहो! दानम् अहो ! दानम्' की उद्घोषणा हुई।
५०. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं प्ररूपण करते हैं - देवानुप्रिय ! बहुल ब्राह्मण धन्य है, देवानुप्रिय ! बहुल ब्राह्मण कृतार्थ है, देवानुप्रिय ! बहुल ब्राह्मण कृतपुण्य है, देवानुप्रिय ! बहुल ब्राह्मण कृतलक्षण है, देवानुप्रिय ! बहुल ब्राह्मण ने इहलोक और परलोक दोनों को सुधार लिया है, देवानुप्रिय ! बहुल ब्राह्मण ने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, जिस बहुल ब्राह्मण के घर में तथारूप साधु साधु रूप प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे - रत्नों की धारा
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