Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. १५ : सू. ७९-८७
भगवती सूत्र श्रमण भगवान् महावीर जिन होकर जिन-प्रलापी हैं, यावत् जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करते हुए विहार कर रहे हैं। ८०. मंखलिपुत्र गोशाल बहुजन के पास इस अर्थ को सुन कर, अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो गया, क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर आतापन-भूमि से नीचे उतरा, नीचे उतर कर श्रावस्ती नगर के बीचोंबीच जहां हालाहला कुंभकारी का कुंभकारापण था, वहां आया, आकर हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में आजीविक-संघ से संपरिवृत होकर महान् अमर्ष का भार ढोता हुआ विहरण
करने लगा। गोशाल का स्थविर आनंद के समक्ष आक्रोश का प्रदर्शन-पद ८१. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का अंतेवासी आनन्द नाम का
स्थविर प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। वह निरंतर बेले-बेले तपःकर्म के द्वारा संयम और तपस्या से अपने आपको भावित करता हुआ विहार कर रहा है। ८२. आनंद स्थविर ने बेले के पारण में प्रथम पोरिसी में इस प्रकार जैसे गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से पूछा, वैसे ही यावत् उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमता हुआ हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से न अति दूर और न अति निकट
जा रहा था। ८३. मंखलिपुत्र गोशाल ने आनंद स्थविर को हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से न अति
दूर और न अति निकट जाते हुए देखा, देखकर इस प्रकार कहा-आनंद! तुम इधर आओ, एक बड़ी उपमा को सुनो। ८४. स्थविर आनन्द मंखलिपुत्र गोशाल के इस प्रकार कहने पर जहां हालाहला कुंभकारी के
कुंभकारापण था, जहां मंखलिपुत्र गोशाल था, वहां आया। ८५. मंखलिपुत्र गोशाल ने आनन्द स्थविर से इस प्रकार कहा-आनन्द! चिर अतीत काल में
कुछ उच्च तथा निम्न, धनार्थी, अर्थ-लुब्ध, अर्थ-गवेषी, अर्थ-कांक्षी, अर्थ-पिपासु वणिक अर्थ की गवेषणा के लिए नाना प्रकार के विपुल पण्य के भांड लेकर गाड़ी-गाड़ों में बहुत पथ्य भक्त-पान लेकर एक विशाल बस्ती-शून्य, जल-रहित, आवागमन-रहित प्रलंब मार्ग वाली अटवी में अनुप्रविष्ट हो गए। ८६. उन वणिकों के उस विशाल बस्ती-शून्य, जल-रहित, आवागमन-रहित प्रलंब-मार्गवाली
अटवी में कुछ दूर जाने पर पहले लिया हुआ जो जल था, वह बार-बार पीते-पीते समाप्त हो गया। ८७. जल के समाप्त होने पर, प्यास के प्रारम्भ होने पर वणिकों ने एक-दूसरे को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा–देवानुप्रिय! हम इस विशाल बस्ती-शून्य, जल-रहित, आवागमन-रहित प्रलंब मार्ग वाली अटवी में हैं। कुछ दूर जाने पर पहले लिया हुआ जो जल था, वह बार-बार पीते पीते समाप्त हो गया। देवानुप्रियो! हमारे लिए यह श्रेय है कि हम इस विशाल बस्ती-शून्य यावत् अटवी में चारों ओर जल की मार्गणा-गवेषणा करें। इस प्रकार एक दूसरों
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