Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. १४ : उ. ६,७ : सू. ७४-७७
भगवती सूत्र
कुछ अधिक प्रज्ञप्त है। उस चक्र नाभि प्रतिरूप के ऊपर बहुसम रमणीय भूमि भाग प्रज्ञप्त है यावत् मणि का स्पर्श। उस चक्र प्रतिरूप के बहुमध्य-देश-भाग है, वहां एक महान् प्रासादावतंसक का निर्माण करता है ऊंचाई में पांच सौ योजन, उसका विस्तार ढाई सौ योजन। वह प्रासादावतंसक अपनी ऊंचाई से आकाश को छूने वाला मानो श्वेतप्रभा पटल से हंसता हुआ प्रतीत हो रहा है। इस प्रासादावतंसक के चंदोवा में पद्मलता की भांति खचित चित्र चित्रित हैं यावत् प्रतिरूप। उस प्रासादावतंसक के भीतर बहुसम रमणीय भूमि है यावत् मणि का स्पर्श। मणिपीठिका वैमानिक की भांति आठ योजन की है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक महान् देव-शयनीय का निर्माण करता है, शयनीय का वर्णन यावत् प्रतिरूप। वहां देवराज देवेन्द्र शक्र सपरिवार आठ अग्रमहिषियों तथा दो अनीकों-नाट्यानीक और गंधर्वानीक के साथ आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बनाए गए वादित्र, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग
की महान् ध्वनि से दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगता हुआ विहरण करता है। ७५. जब देवराज देवेन्द्र ईशान दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगना चाहते हैं, वह यह कैसे करते
जैसे शक्र वैसे ईशान की निरवशेष वक्तव्यता। इसी प्रकार सनत्कुमार की वक्तव्यता, इतना विशेष है-प्रासादावतंसक ऊंचाई में छह सौ योजन, उसका विस्तार तीन सौ योजन, उसी प्रकार मणिपीठिका आठ योजन की। उस मणिपीठिका के ऊपर एक महान् सिंहासन का निर्माण करता है, परिवार-सहित वक्तव्य है। देवराज देवेन्द्र सनत्कुमार बहत्तर हजार सामानिक-देव यावत् दो लाख इठ्यासी हजार आत्मरक्षक-देव और सनत्कुमार-कल्पवासी बहुत वैमानिक देवता, देवियों के साथ संपरिवृत होकर आहत नाट्यों यावत् विहरण करता है। इस प्रकार जैसे सनत्कुमार उसी प्रकार यावत् प्राणत, अच्युत की वक्तव्यता, इतना विशेष है जो जिसका परिवार है, वह उसका वक्तव्य है। प्रासाद की ऊंचाई अपने-अपने कल्प के विमानों की ऊंचाई, विस्तार उससे आधा यावत् अच्युत के प्रासादावतंसक की ऊंचाई नौ सौ योजन, उसका विस्तार साढ़े चार सौ योजन है। वहां देवराज देवेन्द्र अच्युत दस हजार सामानिकों के साथ यावत् विहरण करता है। शेष पूर्ववत्। ७६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
सातवां उद्देशक गौतम का आश्वासन-पद ७७. राजगृह नगर यावत् परिषद् वापस नगर में चली गई।
अयि गौतम! श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम को आमंत्रित कर इस प्रकार कहा-गौतम! तुम चिर काल से मेरे संसर्ग में रहे हो। गौतम! तुम मुझसे चिर संस्तुत रहे हो। गौतम! तुम चिर काल से मुझसे परिचित रहे हो।
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