Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १४ : उ. १,२ : सू. ८-१६
- तिर्यग्यानिक और परंपर- उपपन्न मनुष्य चारों गतियों के आयुष्य का बंध करते हैं, शेष पूर्ववत् ।
९. भंते! क्या नैरयिक अनंतर निर्गत हैं? क्या परंपर- निर्गत हैं ? क्या अनंतर परंपर- अनिर्गत हैं ? परंपर- निर्गत भी हैं, अनंतर परंपर- अनिर्गत भी हैं-न
गौतम ! नैरयिक अनंतर निर्गत भी हैं, अनंतर - निर्गत हैं, न परंपर-निर्गत हैं।
१०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - यावत् अनंतर परंपर- अनिर्गत भी हैं ? गौतम ! जो नैरयिक प्रथम-समय निर्गत हैं, वे नैरयिक अनंतर समय निर्गत हैं। जो नैरयिक अप्रथम-समय-निर्गत हैं, वे नैरयिक परंपर-निर्गत हैं। जो नैरयिक विग्रहगति - -समापन्नक हैं, वे नैरयिक अनंतर परंपर-अनिर्गत हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - यावत् अनंतर - परंपर- अनिर्गत भी हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता ।
११. भंते! अनंतर निर्गत नैरयिक क्या नैरयिक- आयुष्य का बंध करते हैं यावत् देव - आयुष्य का बंध करते हैं ?
गौतम ! नैरयिक- आयुष्य का बंध नहीं करते यावत् देव आयुष्य का बंध नहीं करते। १२. भंते! परंपर- निर्गत नैरयिक क्या नैरयिक आयुष्य का बंध करते हैं ? पृच्छा ।
गौतम ! नैरयिक- आयुष्य का भी बंध करते हैं यावत् देव- आयुष्य का भी बंध करते हैं । १३. भंते! अनंतर - परंपर-अनिर्गत नैरयिक की पृच्छा ।
गौतम ! नैरयिक- आयुष्य का बंध नहीं करते यावत् देव- आयुष्य का बंध नहीं करते। निरवशेष यावत् वैमानिक की वक्तव्यता ।
१४. भंते! क्या नैरयिक अनंतर खेद के साथ उपपन्नक हैं? परंपर-खेद के साथ उपपन्नक हैं ? अनंतर - परंपर- खेद के साथ अनुपपन्नक हैं ?
गौतम! नैरयिक अनंतर खेद के साथ उपपन्नक भी हैं, परंपर-खेद के साथ उपपन्नक भी हैं, अनंतर परंपर-खेद के साथ अनुपपन्नक भी हैं। इसी प्रकार इस अभिलाप की भांति चारों दंडक वक्तव्य हैं।
१५. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है । यावत् विहरण करने लगे ।
दूसरा उद्देशक
उन्माद - पद
१६. भंते! उन्माद कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम ! उन्माद दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे - यक्षावेश और मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला । जो यक्षावेश का उन्माद है वह सुख-वेदनतर है, उसका वेदन अतिशय क्लेश-रहित होता है और सुख-विमोचनतर है, उससे अतिशय क्लेश के बिना मुक्ति होती है । जो मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला उन्माद है, उसका वेदन यक्षावेश के उन्माद की अपेक्षा अतिशय क्लेशपूर्वक होता है और वह दुःख - विमोचनतर है, उससे यक्षावेश उन्माद
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