Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. १३ : उ. ९,१० : सू. १६३-१६९
भगवती सूत्र अनगार भी स्वयं वनषंड-कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता है?
शेष पूर्ववत्। १६४. जैसे कोई पुष्करिणी होती है-चतुष्कोण वाली, समतीर वाली, क्रमशः सुन्दर तट वाली, गंभीर और शीतल जल वाली यावत् जिसमें उन्नत शब्द और मधुर स्वर का नाद हो रहा है, वह चित्त को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी स्वयं पुष्पकरिणी-कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता है?
हां, उड़ता है। १६५. भंते! भावितात्मा अनगार कितने पुष्पकरिणी-कृत्यागत रूपों का निर्माण करने में समर्थ
शेष पूर्ववत् यावत् विक्रिया करेगा। १६६. भंते! क्या मायी विक्रिया करता है? अमायी विक्रिया करता है?
गौतम! मायी विक्रिया करता है. अमायी विक्रिया नहीं करता। मायी इस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल को प्राप्त होता है, उसके आराधना नहीं होती। अमायी उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर काल को प्राप्त होता है, उसके आराधना होती है। १६७. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। इस प्रकार यावत् विहरण करने लगे।
दसवां उद्देशक
छाद्मस्थिक-समुद्घात-पद १६८. भंते ! छाद्यस्थिक समुद्घात कितने प्रज्ञप्त हैं?
गौतम! छाद्यस्थिक समुद्घात के छह प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-वेदना-समुद्घात, इस प्रकार छाद्मस्थिक समुद्घात पण्णवणा (३६/५३-५८) की भांति ज्ञातव्य है यावत् आहारकसमुद्घात। १६९. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। इस प्रकार यावत् विहरण करने लगे।
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