Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-१.९]
दर्शनप्राभृतम् १, ( अणुमाणिय ) अनुमानं इत्येतावत्पापं कृतं भविष्यति निर्धारो नास्ति २, (जं दिट्ठ) यत्केनचिद् दृष्टं तत्प्रकाशयति ३, ( बादरं ) स्थूलं पापं प्रकाशयति ४, ( सुहुमं ) अल्पं पापं कथयति, न महापापं प्रकाशयति ५, (छण्णं ) प्रच्छन्नं आचार्याग्ने कथयति, न प्रकटं ६, ( सद्दाउलयं ) संघादिकृतकोलाहले सति कथयति पापम् ७, ( बहुजणें ) बहुः सङ्घो मिलति तदा पापं प्रकाशयति ८. ( अव्वत्तं ) अव्यक्तं प्रकाशयति स्फुटं न कथयति ९, ( तस्सेवी ) यत्पापं प्रकाशितं तदेव पुनरपि करोति' १०, इति दशालोचनादोषाः । दश कायसंयमाः के ? पञ्चेन्द्रियनिर्जयः पञ्चप्राणरक्षा इति दश । एतान् संयम-तपोनियम-योग-गुणान् घरतीत्येव
आकपिअ इत्यादि-(१) गुरु के सम्मुख दोष प्रकट करने के पूर्व इस बात का भय उत्पन्न होना कि कहीं आचार्य अधिक दण्ड न दे अथवा ऐसी मुद्रा बना कर दोष कहना कि जिससे शिष्य की दयनीय अवस्था देख कर आचार्य कड़ा दण्ड न दे सकें। (२) दूसरे के द्वारा अनुमानितसंभावना में आये हुए पाप का निवेदन करना। (३) जो दोष किसी ने देख लिया हो उसी की आलोचना करना, बिना देखे दोष को आलोचना नहीं करना । (४) स्थूल दोष की आलोचना करना, सूक्ष्म दोष की नहीं। साथ ही यह भावना रखना कि जब यह स्थूल-बड़े दोष नहीं छिपाता तो सूक्ष्म दोष क्या छिपावेगा? (५) सूक्ष्म दोष की आलोचना करना, स्थल को नहीं; और साथ ही ऐसा अभिप्राय रखना कि जब यह सूक्ष्म दोषों को नहीं छिपाता तो बड़े दोषों को क्यों छिपावेगा ? (६) आचार्य के आगे अपराध को स्वयं प्रकट नहीं करना। (७) संघ आदि के द्वारा किये हए कोलाहल के समय अपने दोष प्रकट करना। (८) जिस समय पाक्षिक-चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमणों के समय संघ के समस्त साधु अपने अपने दोष प्रकट कर रहे हों उसी समय कोलाहल में अपने दोष प्रगट करना (९) अव्यक्त रूप से अपराध कहना अर्थात् स्वयं मुझसे यह अपराध हुआ है, ऐसा न कह कर कहना कि भगवन् ! यदि किसी से असुक अपराध हो जाय तो उसका क्या प्रायश्चित्त होगा; इस तरह अव्यक्त रूप से अपराध प्रकट कर प्रायश्चित्त लेना । (१०) और जिस पाप को गुरु के सम्मुख प्रकट कर प्रायश्चित्त लिया है उस अपराध को पुनः पुनः करना अथवा जो अपराध हुआ है उसो अपराध को करनेवाले १. आशापरस्तु 'समात्तत्सेवितं त्वंसो'। आत्मसदृशात्पाश्वंस्थात् यत्प्रायश्चित. ग्रहणं तत् तत्सेवितम्-इत्याह ।
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