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प्रकाशिका टोका द्विवक्षस्कार स. २८ सुषमसुषमाकाले राजादिविषयक प्रश्नोत्तराणि २६९ मात्रादिकेषु प्रत्येकं च पुनः एतेषां परस्परं 'तिव्वे' तीव्र सातिशय,-'पेमबन्धणे' प्रेमवन्धनं स्नेहबन्धनं णो' नैव 'समुपज्जइ' समुत्पद्यते न संजायते पुन गौतम स्वामी पृच्छति'अस्थि णं भंते भरहे वासे अरीइ वा' हे भदन्त अस्ति खलु तस्यां समायां भरते वर्षे अरिरिति वा अरिः सामान्य शत्रुः, 'वेरिएइवा' वैरिकः मूषकमार्जार बज्जातितः शत्रुः, 'घाइएइवा' घातक इति वा घातकः अन्यद्वारा घातकर्ता, 'बहएइवा' वधकः स्वयं हननकर्ता व्यथक इतिच्छाया पक्षे चपेटादिना व्यथोत्पादकः इति, 'पडिणीयएइवा' प्रत्यनीक इति वा प्रत्यनीकः कार्यविघातकर्ता, 'पच्चामित्तेइवा' प्रत्यमित्रमिति वा प्रत्यमित्रम् यः पू. र्व मित्रत्वमुपगतः पश्चादमित्रत्वमुपगच्छतीति सः, यद्वा-अमित्र सहायक इति ? भगवानाह-'गोयमा णो इणढे समठे' हे गौतम नो अयमर्थः समर्थः यतो 'समणाउसो' हे मायुष्मन् श्रमण' 'ते णं मणुया ववगयवेराणुसया' ते खलु मनु नाः व्यपगत वैरानुशया:व्यपगतो वैरानुशयः द्वेषानुवन्धो येभ्यस्ते तथाभूताः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता इति । तस्मिन् तिव्वे पेमबंधणे समुपज्जइ" हां गौतम ! यह सब वहां पर होता है परन्तु उन मनुष्य का उनमें तीव्र प्रेम बन्धन उत्पन्न नहीं होता है । “अस्थि णं भंते ! भरहे वासे अरोइ वा वेरिएइ वा घाइएइ वा, वहएइ वा, पांडणीयएइ वा, पच्चा मित्तेइ वा" अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं -हे भदन्त ! उस काल में भरतक्षेत्र में क्या कोई किसी का शत्रु होता है ? मूषक-मार्जार की तरह क्या जाति से कोई किसी का वैरी होता है ? क्या कोई किसी का घातकर्ता-अन्य द्वारा वर करने वाला होता है ? क्या कोई स्वयं किसो की हत्या करने वाला होता है ? अथवा जब "वहाइ'' क' संस्कृत छाया व्यथक ऐसी होगी-तब चपेटा आदि द्वारा क्या कोई किसी को व्यथा उत्पन्न करने वाला होता है ? ऐसा इसका अर्थ होगा. क्या कोई किसी के कार्य का विधात करने के स्वभाव वाला होता है ? क्या कोई किसी का प्रत्यमित्र होता है ! अर्थात् पहिले मित्र बनाकर बाद में क्या कोई किसी का शत्रु होता है, इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं "गोयमा! णो इणढे समटे" हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि “ववगयवेराणुसया णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो" छ:- "हंता अस्थि णोचेवण तेसि मणुयाण तिव्वे पेमबन्धणे समुप्पज्जई" &ी, गौतम ! આ સર્વ સંબંધે તે કાળમાં હોય છે પણ તે માણસને તે સંબંધમાં તીવ્ર પ્રેમ ભાવ હોતો नथी. अत्थि णं भंते ! भरहे वासे अरिइ वा वेरिइवा धाइपइ वा वहएइ पडिणीपइ वा, पच्चामिह पा" वे गौतम प्रभुने माना न रे छ , महन्त ! ते भां, ભરત ક્ષેત્રમાં શું કર્યું કેઈનો શત્રુ હોય છે ? મૂષક-માજા ની જેમ શું કઈ પણ જાતનું જાતીય વેર હેાય છે ? કેાઈ ઘાતકતો બીજા વડે વધકરાવનાર હોય છે ? પિોતે
छन त्या ४२नार डाय छ ? अथवा न्यारे 'वहईवा' शनी संस्कृत छाया व्यथ सेवा થશે ત્યારે થપ્પડ વગેરે વડે શુ કોઈ કોઈ ને વ્યથા આપનાર હોય છે ? એ એના અર્થ થશે કોઈ કેઈ ના કાર્યમાં વિધારવાના સ્વભાવવાળું હોય છે? શું કોઈ કોઈનો પ્રત્યમિત્ર હોય છે ? એટલે કે પહેલાં કેઈ કેઈ ને મિત્ર બનીને પછી તેને શત્રુ થઈ जय छ। नासपासमा प्रभु ४३छे 'णो इणटूठे समटूठे' गौतम ! म अर्थ समय
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