Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 932
________________ ५१८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे वान् तदाह'तणं से' इत्यादि 'तरणं से भरहे राया जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छ' तदनन्तरं खलु स भरतो राजा यत्रैव पोषधशाला तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'जाव अमभत्तिए पडिजागरमाणे विहर' यावत् अष्टमभक्तिकः सन् अष्टमभक्तं प्रतिजाग्रत् विहरति तिष्ठति अत्र यावत्पदात् त्यक्तालङ्कारशरीरः त्यक्तस्नानः विस्तारितदर्भासनोपविष्टः ब्रह्मचारी इति ग्राह्यम् ' तरणं से भरहे राया अहममत्तंसि परिणममाणंस आभिओगिए देवे सदावेइ सद्दावित्ता एवं व्यासी' ततः खलु स भरतो राजा अष्टम परिणमति परिपूर्णे जायमाने सति आभियोग्यान् आज्ञाकारिणः देवान् शब्दयति आह्वयति शब्दयित्वा आहूय एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान् इत्याह- 'खिप्पामेव' इत्यादि खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! विणीयाए यहाणीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीमाए एगं महं अभिसेयमंडवं विउब्वेह विवित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चपिणढ' क्षिप्रमेव शीघ्रमेव भो देवानुप्रियाः ! विनीतायाः तप से ही वृद्धिंगत होता है. इस प्रकार चित्त में सम्यक विचार करते हुए भरतमहाराजा ने जो किया उसे अब सुत्रकार प्रकट करते हुए कहते हैं- (तएणं से भरहे राया जेणेव पो सहसाला तेणेव उवागच्छइ) इसके बाद भरतमहाराजा जहां पर पौषध शाला थी वहां पर लाये- (उवागच्छित्ता जाव अट्ठमभत्तिए पडिजागरमाणे विहरइ) वहां आकर के अष्टमभक्तिक- बन गये. और सावधानी से गृहीत व्रत को आराधना करने लगे. यहां यावत् शब्द से ( त्यक्तालङ्कारशरीरः, व्यक्तस्नानः विस्तारितदर्भासनोपविष्टः ब्रह्मचारी " इस पाठ का ग्रहण हुआ है. । (तपणं से भर राया अट्टमभत्तं परिणममाणंसि आभिओगिए देवे सदावेइ) इसके बाद भरतमहाराजा ने अट्ठम भक्त की तपस्या समाप्त होनेपर आभियोगिक देवों को बुलाया. ( सदावित्ता एवं वयासी) और बुलाकर उनसे ऐसा कहा – (त्रिप्पामेव भो देवाणुपिया ! विणोयाए रायहाणीए उत्तर पुरत्थि मे दिसोभाए एवं महं अभिसेयमंडवं विउब्वेह) हे देवानुप्रियो ! तुमलोग बहुत शीघ्र विनीता राजधानी के ईशान कोन में एक विशाल अभिषेक मण्डप निर्मित करो. (विउब्वित्ता मम एयતપથી પ્રાપ્ત રાજ્ય તપથીજ વૃદ્ધિગત હોય છે. આ પ્રમાણે ચિત્તમાં વિચાર કરતાં શ્રી ભરત महा रामसे हैं यु ते. विषहवे सूत्रकार स्पष्टता उरतांडे छे - (तएणं से भरते राया जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ ) ત્યાર માદ ભરત મહારાજા જ્યાં પૌષધशाजा हती त्यां गया. ( उवागच्छित्ता जाव अट्टमभत्तिए पडिजागरमाणे विहरह) त्यां આર્ચીને ત અષ્ટમ ભક્તિકથઇ ગયા અને સાવધાની પૂર્વક ગૃહીત વ્રતની આરાધના કરવા साग्या अडीं यावत् शब्दथी (त्यक्तालङ्कारशरीरः त्यक्तस्नानः, विस्तारितदर्भासनोपविष्टः ब्रह्मचारी) “मा पाउनुहुनु थ्यु छे (तपणं से भरते राया अट्टमभत्तंसि परिणममाणसि अभिओगिर देवे सहावेइ) त्यार माह भरत महाराज से न्यारे अष्टमभानीतपस्या पूरीधर्ध त्यारे आयोगद्वेवो ने मोसाव्या. (सद्दावित्ता एवं वयासी) मने सोसावीने ते देवाने या प्रमाणे उद्धुं (खिपामेव भो देवाणुपिया ! विणीयाए रायहाणीप उत्तरपुरत्थिमे दिलीभाए एवं महं अभिसेयमंडवं विउब्वेह) हे हेवानुप्रियो ! तमे अतीव शीघ्र विनीता रा धानी नाईशान अणुभां मे विशाल अभिषे मंडप निर्मित ४२ । (विउग्वित्ता मम एय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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