Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 930
________________ ९१६ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सुपशब्दस्य सूपकारशतानि त्रिषष्टयाधिकशतानि खूपकारान् - रसवतीकारान् इत्यर्थः 'अट्ठारस सेणिप्पणीओ' अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणी: 'अण्णेय बहवे राईसर तलवर जाव सत्थवाद - 'पभियम' अन्यांश्च बहून् राजेश्वर तलवर यावत् सार्थवाह प्रभृतीन् शब्दयति आह्वयति अत्र यावत्पदात् माम्बिक कौटुम्बिकमन्त्रिमहामन्त्रि गणकदौवारिकामात्य चेटपीठमर्दनगर निगम श्रेष्ठसेनापतिसार्थवाहदूतसन्धिपालपदानि ग्राह्यानि एतेषां व्याख्यानम् अस्मि नेव तृतीयवक्षस्कारे सप्तविंशतितमे सूत्रे द्रष्टव्यम् 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा आहूय एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान् इत्याह- 'अभिजिएणं' इत्यादि 'अभिजिएणं देवाणुपिया ! मए णिअगबलवीरिअ जाव केवलकप्पे भरह वासेत तुम्भेणं देवाणुपिया ! मम महया रायाभिसेयं वियरह' अभिजितं खलु देवानुप्रिया ! मया निजकबलवीर्य यावत् - निजकबलवीर्यपराक्रमेण क्षुद्र हिमवद्विरिसागरमर्यादया केवलकल्पम् सम्पूर्ण भारतं वर्षम् तत् तस्मात् यूयं खलु देवानुप्रियाः मम महाराज्याभिषेकं वितरत - कुरुत 'तपणं से सोलसदेवसहस्सा जाव पभिइओ भरहेणं रण्णा एवं बुत्ता समाणा हट्ट करयल मत्थए अंजलिं कट्टु भरहस्स रण्णो एयमहं सम्मं विणणं को, अठारह श्रेणिप्रश्रेणि जनों को दूसरे और भी अनेक राजेश्वर तलवर यावत् सार्थare आदि कों को बुलाया यहां आगत यावत्पद से" कौटुम्बिक मंत्री, महामंत्री, गणक दौवारिक अमात्य चेट, पीठमर्द, नगर निगम श्रेष्ठिजन सेनापति, सार्थवाह दूत, सन्धिपाल" इन सबका ग्रहण हुआ है. (सदावित्ता एवं वयासी) बुलाकर भरत महाराजा ने उन से ऐसा कहा - (अभिजिएणं देवाणुप्पिया ! मए णियगबलबीरिय जाव केवलकप्पे भर हे वासे) हे देवानुप्रियो ! मैंने अपने बलवीर्य एवं पुरुषकार पराक्रम से इस सम्पूर्ण भरत खण्ड को अपने वश में कर लिया है. (तं तुब्भेणं देवाणुपिया ! मम महया रायाभिसेयं वियरह) इसलिये हे देवानुप्रियो ! आप सब वडे ठाट बाट से मेरा राज्याभिषेक करो. (तएण से सोलसदेव सहस्सा जाव प्पभिइओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठ तुट्ठ करयलमत्थए अंजलि कट्टु भरहरु रण्णो एयमहं सम्मं विणएणं पडिसुगांत) इस प्रकार श्री भरत महाराजा द्वारा રત્નને, ગથાપતિ રત્નને ૩૬૦ રસવતી કારકાને ૧૮ શ્રેણિ પ્રશ્રેણિ જનોને બીજા અનેક રાજેश्वरे। तसवरे। यावत् सार्थवाह। विगेरे ने गोसाव्या. सहीं आवेला यावत् पहथी "माडंबिक, कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री, गणक, दौवारिक, अमात्य, चेटपीठमर्द, नगर निगम श्रेष्ठिजन, सेनापति, सार्थवाह, दूत, सन्धिपाल” मे सर्व पहोनुं श्रणु थयु छे. (सद्दाविता एवं वयासी) मेोसावीने भरत रानमे तेमने आ प्रमाणे उह्यु. (अभिजिपणं देवाणुपिया ! मणियगबलवीरय जाव केवलकप्पे भरहे वासे) हे देवानुप्रिये। ! में स्वणसवीर्य तेभ पुरुषार पर भथी या सम्पूर्ण भरत मउने वशमां री सीधे छे. (तं तुब्भेणं देवाणु पिया ! मम महया रायाभिसेयं वियरह) मेथी हे देवानुप्रियो ! तमे सर्वे पूजन हाई-भा थी भारी राज्याभिषे४ पुरे. (तपणं से सोलसदेव सहस्सा जावप्यभिइओ भरतेणं रण्णाएवं ता समाणा दट्ठ-तुट्ट करयल मत्थर अंजलि कट्टु भरहस्स रण्णो एयमहं सम्मं विणणं T Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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