Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 936
________________ ९२२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे स्तम्भशतसन्निविष्टम् अनेकानि स्तम्भशतानि अनेकशतानि स्तम्भाः सन्ति यत्र स तथाभूतस्तम्, यावद् गन्धवतिभूतम् गन्धर्वत्तियुक्तम् अत्र यावत्पदात् राजप्रश्नीयोपाङ्गगत सूर्याभदेवयानविमानवर्णको ग्राहयः स च कियत्पर्यन्तमित्याह-यावदगन्धवतिभूतमिति विशेषणम् अतएव सूत्रकार एव साक्षादाह-'पेच्छाघरमंडववण्णगोत्ति 'प्रक्षागृहमण्डपवर्णको ग्राह्य इति तस्स णं अभिसेयमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगं अभिसेयपेढं विउव्वंति अच्छं सण्हं' तस्य खलु अभिषेकमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु महान्तम् एकमभिषेकपीठं विकुर्वन्ति अच्छम् अस्तरजस्कत्वात् श्लक्ष्णं निर्मलमित्यर्थः सूक्ष्मपुग्दलनिर्मितत्वात् 'तस्स णं अभिसेयपेढस्स तिदिसिं तो तिसोवाणपडिरूवए विउच्चंति' तस्य खलु अभिषेकपीठस्य त्रिदिशि त्रीन् त्रिसोपानप्रतिरूपकान विकुर्वन्ति 'तेसिंगं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते जाव तोरणा' तेषां खलु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणाम् अयमेतद्रूपः वापी त्रिसोपानप्रतिवर्णनादि प्रतिपादयन्नाह-'तस्स गं'इत्यादि 'तस्स णं अभिसेयपेढस्स बहुसमरमणिज्जे भूमिभाए पण्णत्ते' तस्य खलु अभिषेकपीठस्य बहुसमरमणियो भूमिभागः प्रज्ञप्तः 'तस्स गं (अणेगखंभसयसण्णिविटुं नाव गंधवट्टिभूयं पेच्छाघरमंडववण्णगोत्ति)यह मंडप से कड़ों खंभों से युक्त था. यावत् सुगन्धित धूपबत्तियों से यह महक रहा था. यावत् पद से यहां गजप्रश्नीय उपाङ्ग में वर्णित सूर्याभदेवकी विमान वक्तव्यता यावत् गंधवर्ती भूत इस विशेषण तक गृहीत हुई है. इसी बात को सूत्रकार ने "प्रेक्षागृहमंडपवर्णक" इस पद द्वारा माक्षात् कहा है. (तस्स णं अभिसेय. मंडवस्म बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगं अभिसेयपेट विउव्वति) उस अभिषेक मंडप के ठोक मध्यभाग में एक विशाल अभिषेक पीठ नो (अच्छं मण्ह) अच्छा धूलि विहीन था और सूक्ष्म पुद्गलों से निर्पित होने के कारण लक्ष्ण था. (तस्मणं अभिसेयपेढस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपरिरूवए विउवंति) उस अभिषेक पीठ की तीन दिशाओं में उन्होंने तीन त्रिसोपान प्रतिरूपक विकुवितकिये (तसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते जाव तोरणा) उन त्रिसोपान प्रतिरूपकों का इस प्रकार से वर्णन तोरणों तक लिया गया है. "तस्स णं बहुसमरमणिज्ज. विट्ट जाव गंधवट्टिभूय पेच्छाघरमंडव वण्णगोत्ति) से भ७५ 8२। थानासोथी यात હતો. યાવતું સુગંધિત ધૂપવર્તિકાઓથી એ મહેકી રહ્યો હતો. યાવત પદથી અહીં રાજપ્રશ્રીય ઉપાંગમાં વણિત સૂર્યાભદેવની વિમાન વકતવ્યતા યાવત્ ગંધવતિભૂત એ વિશેષણ सुधा गृहीत छ. से वातन सूत्र॥२- "प्रेक्षागृहमंडपवर्णक" से ५४५ साक्षात ३५. म.४री छे. (तस्त णं अभिसेयमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए पत्थणं महं एगं अभिसेयपेढं विउव्वति) ते मामले मना ४६म मध्यभागमा से विशाल मनिष पानी भर वि । 31. ये राभिषे पी8 (अच्छं सण्ड) ०७-धूलि विडीन तुमने सूक्ष्म पु। साथी मितवा . स तु . (तस्स णं अभिसेयपेढस्स तओ तिसोवाणपरिरूवप विउठ्वं त) मसिषे, पीउनी यहिशायमा तभत्र विसापान प्रति३५। विवित .. (तेसिणं तिलोवाणपडिरूवगाण अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते जाव तोरणा) त्रिसे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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