Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 953
________________ प्रकाशिका टीका तृ०३ वक्षस्कारः सू० ३१ भरतराज्ञः राज्याभिषेकविषयक निरूपणम् ९३९ यावद् अञ्जलिं कृत्वा ताभिरिष्टाभिः अत्रापि 'कंताहिं जाव वग्गूहिं अभिनंदता य अभिथुणंताय एवं वयासी - जय जय गंदा ! जय जय भद्दा ! भदं ते अजियं जिणाहि' इत्यादि पाठो तथा ग्राहय : 'जहा पविसंतस्स भणिया जाव विहराहि' यथा विनीतां प्रविशतो भरतस्य अर्थाभिलाषि प्रमुखपाचकजनै भणिता आशीरिति गम्यम् कियत्पर्यन्तमित्याह 'यावद् विहर' इति विहरेति पर्यन्तमित्यर्थः इति कृत्वा जय जय शब्दं प्रयुञ्जन्ति' तए णं तं भरहं रायाणं सेणावहरयणे जाव पुरोहियरयणे तिष्णि य सट्टा समस्याहारस अ सेणिपीओ अण्णेय बहवे जाव सत्यवाहष्पभिइओ एवंचेव अभिसिचंति' ततो द्वात्रिंशद्राजसहस्राभिषेकानन्तरं खलु तं भरतं सेनापतिरत्नं यावत्पुरोहितरत्नं त्रीणि च षष्ठानि षष्ट्यधिकानि अभिषेक करके फिर प्रत्येक ने यावत् अंजलि करके उन उन इस कान्त यावत् वचनों द्वारा उन का अभिनन्दन एवं संस्तवन करते हुए इस प्रकार से कहा (जय जय गंदा ! जय जय भद्दा भदं ते अत्रियं निणाहि ) हे नन्द - आनन्दस्वरूप भरत ! तुम्हारी जय हो जय हो हेभद्र ! कल्याण स्वरूप - भरत ! तुम्हारी बारवार जय हो तुम्हारा कल्याण हो वीरो द्वारा भी परास्त नहीं किये जासकने वाले ऐसे शत्रु को तुम परास्त करो० इत्यादि रूप से जैसा यह पाठ २९वें में इसी वक्षस्कार के कथन में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी वह ग्रहण करना सूत्र चाहिये (जहा पविसंतस्त भणिया जाव विहाहि ) जिस प्रकार से विनीता में प्रवेश करते समय भरत के प्रति " यावत् विहर" इसपाठ तक अर्थाभिलाषो से लेकर पाचक तक के जनों ने शुभाशीर्वाद प्रकट किया उसी प्रकार से यहाँ पर भो वही आशीर्वाद उसी रूप में प्रत्येक नृपने प्रकट किया ऐसाजानना चाहिये (तरण भरहं रायाणं सेनावइरयणे जाव पुरोहियरयणे तिष्णिय सट्टा सुअसया अट्ठारससेणिष्पसेणीओ अण्णेय बहवे जाव सत्थवाहप्पभिइओ एवं चेन अभिसिंचंति) इसके बाद भरत राजा का सेनापतिरत्न ने यावत् पुरोहित रत्न ने, ३६० रसवतीताहि इट्ठाहिं जहा पविसंतस्स भणिया जाव विहराहि ति कट्टु जय २ सह पउ जंति) ભરત રાજાને અભિષેક કરીને પછી દરેકેયાવત અંજલિ મનાવીને તે તે ઇષ્ટ-કાન્ત થાવત્ क्यने। वडे तेमनु अभिनंदन तेभन स्तवन ४२ र प्रभा उधुं - ( जय-जय णंदा ! जय जय भदा ! भद्द ते अजियं जिणाहि ) डे नन्ह ! मानं स्व३५ महाशन भरत । तमारे। જય થાઓ, જય થાએ હું ભદ્રે ! કલ્યાણુ સ્વરૂપ ભરત ! તમારે વાર વાર જય થાઓ, તમારૂં કલ્યાણ થાએ. વીરા દ્વારા પણુ અપરાજિત શત્રુને તમે પરાસ્ત કરે. વગેરે રૂપમાં જેવા આ પાઠ ૨૯મા સૂત્રમાં આજ ‘વક્ષસ્કાર’ માં કહેવામાં આવેલ છે, તેવા જ પાઠ અત્રે પણ समवे. ( जहा पविसं तस्स भणिया जाव विहराहि ) प्रेम विनीतामा प्रवेश अरती વખતે ભરત પ્રત્યે ચાલત વિહર” એ પાઠ સુધી અર્થોભિલાષી થી માંડીને પાચસુધીના જનાએ જેમ શુભાશીર્વાંઢો પ્રકટ કર્યાં. તેમ જ અત્રે પણ તે પ્રમાણે જ આશીર્વાદો દરેક रामये आउट यो सेम लधुवु लेये. (तपणं तं भरह रायाणं सेणावहरयणे जाव पुरोहियरयणे तिणिय सहा सुभसया अट्ठारस से दिवसेणीओ अण्णेय बहवे जाब : सत्थवाहपभिइओ एवं चेव अभिसिवंति) त्यारभाई भरत राम સેનાપતિ રત્ને યાવત્ પુરા Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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