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प्रकाशिका टीकाद्विवक्षस्कारः सू० ६० सुषमदुष्षमाकालनिरूपणम्
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(पडिवज्जिस्सइ) प्रतिपत्स्यते प्राप्तो भविष्यति । अस्याः समाया भागत्रयं भवतीति तद् दर्शयति साणं' इत्यादि । ( साणं समा तिहा विभज्जिस्सइ) वा खलु समा त्रिधा विभङ्क्ष्यते सासुषमदुष्पमारूपासमा भागत्रयेण विभक्ता भवति । तत्र प्रत्येकभागं नामनिर्देश पूर्वकमाह - 'पढमे तिभागे, इत्यादि । ( षढमे तिभागे मज्झिमे विभागे, पच्छिमे तिभागे) प्रथमस्त्रिभागो, मध्यमस्त्रिभागो पश्चिमस्त्रिभाग इति । 'त्रिभाग' इत्यस्य 'तृतीयो भाग इत्यर्थः । एवं सुषमदुष्पमायाः समाया भागत्रयं प्रदर्श्य सम्प्रति प्रथम त्रिभागस्याकारभावं जिज्ञासमानो गौतमस्वामी पृच्छति - 'तीसे णं भंते' ! इत्यादि । (तीसे णं भंते । समाए) तस्याः खलु भदन्त ! समायाः ( पढमे तिभाए) प्रथमे त्रिभागे (भरइस्स वासस्स) भरतस्य वर्षस्य (केरिसए) कीदृशकः (आगारभाव पडोयारे) आकारभावप्रत्यवतारो (fates ) भविष्यति ? । भगवानाह - ( गोयमा !) गौतम ! ( बहुसमरमणिज्जे) बहुसमरमणीयो (जाव) यावद् (भविस्सइ) भविष्यति । अत्र यावत्पदेन स एव वर्णनक्रमः संग्राह्यो योऽवसर्पिण्या: सुषमदुष्षमा समा निरूपणावसरे भरत क्षेत्रस्य वर्णन - क्रमो वर्णित इति । मनुष्याणां विषये गौतमप्रश्नो भगवदुत्तरं च अवसर्पिण्या: के तीन भाग होंगे (पढमेति भागे, मज्झिमे ति भागे, पच्छिमे तिभागे) इन मेंएक प्रथम त्रिभाग होगा द्वितीय मध्यम त्रिभाग होगा और तृतीय पश्विम त्रिभाग होगा इनमेंसे जो 'पढमेतिमाए' प्रथम त्रिभाग है - तीसरा भाग है- (तीसेण भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभाव - पडोयारे भविस्सइ) हे भदन्त ! उस प्रथम त्रिभाग में भरत क्षेत्र का स्वरूप कैसा होगा ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है- (गोयमो ! बहु समरमणिज्जे जाव भविस्सइ) हे गौतम ! प्रथम त्रिभाग में भरत क्षेत्र का भूमिभग बहुत समरमणोय होगा। यहां यावत्पद से वही वर्णन क्रम संग्राह्य हुआ है जो अवसर्पिणी के सुषमा आरक के दुषमा आरक के निरूपण के समय में भरत क्षेत्र का वर्णित किया गया है (मणुयाणं जा चेव ओसप्पिणी ए पच्छिमे वत्तव्वया सा भाणियव्वा कुलगरबज्जा उस
सामिवज्जा) अवसर्पिणीसम्बन्धी सुषम दुष्षमा के पश्चिम त्रिभाग में जैसा मनुष्यों का वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन कुल करके वर्णन को और ऋषभस्वामी के वर्णन को छोड़ कर यहां पर भी करलेना चाहिये. क्यों कि अवसर्पिणी के सुषमदुष्षमा के पश्चिम त्रिभाग में जिन दण्डनीतियों प्रवृत्ति कुलकरों ने की है और ऋषभस्वामी ने जो अन्तपाक आदि किया ओं का और शिल्प त्रिभाग थशे भांथा ? (पढमे तिभाए) प्रथम त्रिभाग छे अर्थात्त्रिने लाग छे, (तीसेण भसे ! समाए भरइस्स वसिस्स के रिसए आयारभाव पडोयारे भविस्सा) डे लहन्त ! ते प्रथम त्रिभागभांलरतक्षेत्रनु स्व३५ ठेवु इशे ? मेनाभ्वाभां प्रभु हे छे (गोयमा बहुसमरमणिज्जे जाघ भविस्सइ) हे गौतम! प्रथम त्रिभागमा लस्तक्षेत्र भूमिला बहुसमरमणीय थशे. અહીં યાવત્ પદથી તે પ્રમાણે જ વણુન ક્રમ સગ્રાહ્ય થશે કે જે પ્રમાણે અવસર્પિણીના सुषभ-हुषमा आरम्ना नि३षाणु समयमा भरतक्षेत्र वानरवामां आव्यु छे. (मणुयाणं जा चेव ओसप्पिणीए पच्छिमे वत्तव्वया सा भाणियव्वा कुलगरवज्जा उसभलामिवज्जा) अवસર્પિણી સંબંધી સુષમ દુષમાના પશ્ચિમ ત્રિભાગમાં જેવું મનુષ્યાનુ વણ્ન કરવામાં આવ્યુ છે,
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