Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 789
________________ प्रकाशिका टीका तृ० ३ वक्षस्कारः सू० २० वर्षावर्षणा तरीय भरतकार्यविवर्णनम् ७७५ मेघ-मुशलधार वृष्टिप्रदमेव पश्यति 'पासित्ता चम्मरयणं परानुसइ' दृष्ट्वा चर्मरत्नं परामृशति स्पृशति गृहाति 'तरणं तं सिरिवच्छसरिसरूवं वेढो भाणियच्वो जाव दुबालसजोयणाई तिरियं पवित्थरइ तत्थ साहियाई' ततः परामर्शानन्तरं खलु श्रीवत्ससदृशरूपं तत् चर्मरत्नं 'act' वेष्टकः वस्तुमात्रविषयको भणितव्यो यावत् द्वादशयोजनानि तत्र साधिकानि ति र्यक् प्रविस्तृणाति 'तणं से भरहे राया सक्खंधारबले चम्मरयणं दुरूहइ' ततः खलु स भरतो राजा सस्कन्धावारबलः चर्मरत्नं दुरोहति 'दुरूहित्ता दिव्वं छत्तरयणं परामुस' दुरुह्य दिव्यं सहस्त्रदेवाधिष्ठितं छत्ररत्नं परामृशति स्पृशति अथ कीदृशं छत्ररत्नमित्याह'तरणं णवण उइ सह सकंचन सलागपरिमंडियं' ततः खलु नवनवतिसहस्रकाञ्चनशलाका परिमण्डितम्, तत्र नवनवतिसहस्रप्रमाणाभिः काञ्चनमयशलाकाभिः परिमण्डितम्, तथा 'महरियं' महाघं बहुमूल्यकं तथा 'अउज्झं' अयोध्यम्-अस्मिन् दृष्टे सति नहि विपक्षभटानां शस्त्रमुत्तिष्ठते इतिभावः पुनः कीदृशं तत् 'णिव्वणसुपसत्यविसिट्ठलट्ठकंचणसुपुट्ठदंड' निर्वणसुप्रशस्त विशिष्टलष्टकाञ्चनसुपुष्टदण्डम् तत्र निर्व्रणः छिद्रादिदोषरहितः सुप्रशस्तः चम्मरयणं परामुसइ ) देखकर उसने चर्मरत्न को उठाया - ( तरणं तं सिविच्छसरिसरूवं वेढो भाणिsat ० ) इस चर्मरत्न का रूप श्रीवत्स के जैसा होता है. इसका वेष्टक वर्णन जैसा पहिले किया गया है वैसा हो यहां पर भी कर लेना चाहिए- यावत् उसने इस चर्मरत्न को कुछ अधिक १२ योजन तक तिरछे रूप में विस्तृत कर दिया - फैलादिया बिछादिया (एणं से भर राया सखंधावारबले चम्मरयणं दुरूहइ दुरुहित्ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसइ) इसके बाद भरत महाराजा अपने स्कन्धावाररूपबल सहित उस चर्मरत्न पर चढ गया और चढ़ करके फिर उसने छत्ररत्न को उठाया - (तएण णवणउइ सहरसकेचणस लागपरिमंडियं महरियं अउज्झ णिव्वणसुपसत्यविसिट्ठलट्ठकंचणसुपुट्ठदंड) यह छर्म न ९९ नन्नाणु हजार काश्चन शलाकाओं से परिमण्डित था । बहुमूल्य वाला था, इसे देख लेने पर विपक्षके भटोके शस्त्र फिर उठते नहीं थे ऐसा यह अयोध्य था, निर्व्रण था, छिद्रादि दोषों से रहित था - समस्त लक्षणों से युक्त होने के कारण सुप्रशस्त था। विशिष्टलष्ट - मनोहर था । अथवा - इतना बड़ा छत्रदुर्वह हो परामुस) लेने तेथे उपाउयु (त एणं तं सिरियच्छसरिसरुवं वेढो भाणियव्वो०) ये यर्भरत्ननु ३ श्रीवत्स ने डाय छे. योना वेष्ट विषे पडेलां ने प्रमाणे વન કરવામાં આવ્યુ છે તે પ્રમાણે જ અહી સમજી લેવુ જોઈએ. ચાવત્ તેણે તે ચમ रत्नने अधि १२ रन सुधा त्रासां इमां विस्तृत ४री हीधु (तपणं से भरहे राया सबंधावारबले चम्मरयणं दुरुह दुरुहिता दिव्वं छत्तरयणं परामुस) त्यामा ભરતરાજા પેાતાના સ્કન્ધાવાર રૂપ ખલ સહિત તે ચરત્ન ઉપર ચઢી ગયા અને ચઢીને पछी ते यर्म रत्नने 58व्यु (तपणं णवण उइसहस्सकं वासलागपरिमंडियं महरिहं अविणसुपसत्य विसिट्ठलट्ठकं बणसुपुट्ठदडें) से छत्ररत्न ८ नव्वाणु हुन्नर अंथन शब्दा કાએથી પરિમડિત હતુ. બહુ મુલ્યવાન હતુ, અને જોયા બાદ વિપક્ષના ભટેના શસ્ત્રા ઉંતા નથી. એવુ' એ આયામ હતું, નિર્માંણુ હતુ છિદ્રાદિ દોષાથી એ રહિત હતું સમસ્ત Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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