Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 901
________________ प्रकाशिका टीका तृ०३ वक्षस्कारःसू० २८ राज्योपार्जनानन्तरीयभरतकार्यवर्णनम् ८८७ तत्र हारेण-मुक्ताहारेण अवस्तृतम् आच्छादितम् अतएव सुकृतरतिदं सुष्ठुचिततया आनन्दजनकं वक्षो वक्षःस्थलं यस्य स तथा, अत्र यावत्पदात् कुण्डलोद्योतिताननः प्रलम्बप्रालम्बमानसुकृतपटोत्तरीयः इति ग्राह्यम्, पुनः कीदृशः सः तत्राह'अमरवइ' इत्यादि 'अमरबइ सण्णिभाए' अमरपतिसन्निभया इन्तुल्यया ऋद्धया भवनाभरणादि लक्षणया सम्पदा (युक्तः), तथा प्रथितकीतिः विख्या :यशाः तथा चक्ररत्नदेशितमार्गः चक्ररत्नेन देशितः प्रदर्शितो मार्गों यस्मै स तथा, तथा अनेक राजवरसहस्त्रानुयातमार्गः-अनेकराजवरसहस्त्रैः अनुयातः अनुगतो मार्गों यस्य भरतस्य स तथा तस्य मुकुटधारिणोऽनेकसहस्रा गजप्रवरा राजानः षड्खण्डाधिपतिर्भरतप्रदर्शितमार्गे प्रचलन्तीस्यर्थः दिग्विजयाथ गमनसमये सेनादिकानां शब्दमुपमानेन दर्शयन्नाह-'जाव समुद्दरवभूयंपिव करेमाणे करमाणे सव्वद्धीए सव्वज्जुइए जाव णिग्योसणाइयरवेणं' यावत्समुद्ररवभूतामिव समुद्रशब्दं प्राप्तामिव मेदिनीमिति गम्यम् अत्र यावत्पदात् त्रुटित वाविशेष शब्दसन्निनादेन अश्वगज सैन्यादि शब्दबाहुल्येन च समुद्ररवं प्राप्तमिव मेदिनी कुर्वन् सणाइयरवेणं गामागरणगरखेडकव्वडमडंब जाव जोयणंतरियाहिं वसहीहिं वसमाणे २ जेणेव विणीया रायहाणी तेणेव उवागच्छइ) इस तरह के ठाठ बाट से सजित हुआ जिसका समस्त राजवैभव जिसके आगे २ चल रहा है ऐसे वे भरत जहाँ पर अपनी विनीता नाम की राजधानी थी वहाँ पर आये ऐसा सम्बन्ध यहाँ पर लगाना चाहिये, अपने ममस्त गनसी टाठ बाट से चलने वाले भरत राजा का वक्षस्थल मुक्ताहार से आच्छादित था अत एव वह देखने वालो को आनन्द दायक बना हुआ था यावत् कुण्डल की कान्ति से मुखको आभा द्विगुणित होकर बाहर फैल रही थी, बहुत हो सुन्दर ढंग से लम्बे अधोवस्त्र और उत्तरीयवस्त्र इन्होंने पहिरे हुए थे अमरपति जैसा ऋद्धि से युक्त थे, इनका यश चारों दिशाओं में प्रख्यात हो चुका था विनीता राजधानी का और जानेवाले निष्कंटक मार्ग को बतानेवाला चक्ररत्न इनके आगे २ जा रहा था अनेक श्रेष्ठ राजाओं का सहस्त्र इनके पीछे २ चल रहा था, सेना मादिजनों के उत्थित हुए शब्दों से उस समय यह भूमंडल को, समुद्र के तूफानी शब्दों से जाइयरवेण गामागर गरखेड कव्वडमडंब जाव जोयण तरियाहि वसहिहि वसमाणे २ जेणेव विणीया रायहाणी तेणेव उवागच्छद) मा ततन 18-मार थी यासना२। भरत જાનું વક્ષસ્થલ મુક્તાહાર થી સમલંકૃત હતુ. એથી દર્શકો માટે તે આહલ દક બની ગયું હતુ યાવત્ કંડલની કાંતિ થી મુખની આભાદ્વિગુણિત થઈ ને બહાર પ્રપરી રહી હતી. અતીવ સુદર ઢંગ થી એ રાજાએ અધોવસ્ત્ર અને ઉત્તરીય વચ્ચે ધારણ કરેલા હતા એ નૃપતિ અમર પતિ (ઇન્દ્ર) જેવી અદ્ધિ થી યુક્ત હતા. એમનો યશ મેર દિશાએ માં પ્રખ્યાત થઈ ચૂક્યો હતો. વિનીતા રાજધાની તરફ જતું અને નિષ્કટક માર્ગ બતાવનારું ચક્રરત્ન એમની આગળ-આગળ ચાલી રહ્યું હતું અનેૐ શ્રેષ્ઠ રાજાઓ ને સમૂહ એમની પાછળ– પાછલ ચાલી રહ્યો હતે પિતાની સેના વગેરે થી ઉસ્થિત શબ્દ થી તે સમયે ભૂમંડલને જાણે સમુદ્રના તોફાન થી ઘર શબ્દ થયોન હાય, આમ બતાવતા તે નૃપ ભરત ચાલી Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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