Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 863
________________ प्रकाशिका टोका तृ.३ वक्षस्कारः सू० २७ दक्षिणाद्धगत भरतकार्यवर्णनम् ८४१ दिशि विनीतां राजधानीमभिमुख प्रयात चाप्यभवत् ततः खलु स भरतो राजा यावत पश्पति दृष्ट्वा हृष्तुष्ट यावत् कीटुम्बिक पुरुषान् शयित शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया ! अभिषेक्यं यावत्प्रत्यर्पयन्ति ॥सू०२७॥ टीका-"तए णं से भरहे राया" इत्यादि । 'तए णं से भरहे राया गंगाए महागाईए पच्चत्थिमिल्ले कूले दुवालसनोयणायामं णवजोयणेविच्छिण्णं जाव विजयक्खंधावारणिवेसं करेइ' ततो गुहानिर्गमानन्तरं खलु स श्रीभरतो महाराजा गङ्गाया महानद्याः पाश्चात्ये पश्चिमे कूले-तटे द्वादशयोजनायामम्, द्वादशयोजनानि अष्टाचत्वारिंशत् क्रोश परिमितानि आयामो दैर्ध्य यस्य स तथा तम् एवं नवयोजनविस्तीर्णम् नवयोजनानि पत्रिंशत् क्रोशपरिमितानि विस्तीर्णानि विष्कम्भानि यस्य स तथा तम् यावत् पदात् वरनगरसदृशं विजयस्कन्धावारनिवेशं विजयाय यः स्कन्धावारः 'छौनी' इति भाषा प्रसिद्धः तस्य निवेशः योजना तं करोति 'अवसिटुं तंचेव जाव निहिरयणाणं अट्ठमभत्तं पगिण्हइ' अवशिष्टम् वर्द्धकिरत्नशब्दज्ञापनादिकं तदेव यन्मागधदेवसाधनावसरे प्रोक्तमिति अस्मिन्नेव तृतीयवक्षस्कारे सप्तमसूत्रे मागधदेवसाधनपाठो द्रष्टव्यः यावत् शब्दात् पौष 'तएणं से भरहे राया गंगाए महाणईए'-इत्यादि सूत्र-२७॥ टीका-(तए ण से भरहे राया गंगाए महाणईए पच्चस्थिमिल्ले कूले दुवालसोयणायामं णवजोयणविच्छिण्णं जाव विजयखंधावारणिवेसं करेइ) गुहा से निकलने के बाद भरत राजा ने गंगा महानदी के पश्चिम दिग्वर्ती तट पर १२ योजन प्रमाण लम्बो और ९ योजन प्रमाण चौड़ी अतएव एक सुन्दर नगर जैसी दिखने वाली बिजय सेना का निवास पडाव छावनो डाला-(अवमिद्रं तं चेव जाव निहिरयणाणं अटूमभत्तं पगिण्हइ ) यहां से आगे का और सब कथन जैसा मागधदेव के साधन प्रकरण में कहा गया है वैसा पौषधशाला में दर्भ के आरन पर बैठने मादि तक का यहां पर जानना चाहिए मागध देव के साधन करने का प्रकरण इसी तृतीयवक्षस्कार के सप्तम सूत्र में कहा गया है इस प्रकार से सब कुछ पूर्वोक्तरूप से (तए णं से भरहे राया गंगाए महाणईप) इत्यादि-सूत्र-२७' । साथ-(तए ण से भरहे राया गंगाए महाणईए पच्चस्थिमिल्ले कूले दुवालसजोयणायाम णवजोयणविच्छिण्ण जाव विजयक्खंधावारणिवेसं करेइ) शुसमांथ ભરતરાજાએ ગગા મહાનદીના પશ્ચિમ દિશ્વતી તટ ૫૨ બાર યોજન પ્રમાણ લાંબી અને જિન પ્રમાણુ પહોળી એથી જ એક સુંદર નગર જેવી સુશોભિત દેખાતી વિજય સેનાને निवास ५ नाय! (अवसिद्वं तं चेव जाव निहिरयणाण अट्ठमभत्त पगिण्हइ) ही થી આગલન બધું કથન જેમ માગધદેવના સાધન પ્રકરણમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. તેવુંજ પૌષધશાળામાં દર્ભના અસિન ઉપર બેસવા સુધીનું અહીં જાણી લેવું જોઈએ માગધ દેવને સાધના કરવા અંગેનું પ્રકરણ આજ તૃતીય વક્ષસ્કારના સપ્તમ સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે. આ પ્રમાણે સર્વ કથન પૂર્વોક્ત રૂપમાં સંપન્ન કરીને ભરત મહારાજાએ ૯ નિધિઓ भने १४ रत्नाने साधा मादे मम सतनी तपस्या धा२५४री. (तपणं से भरहे राया १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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