Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

Previous | Next

Page 894
________________ ८८०. जम्बूद्वीपप्रप्तसूत्रे मुखाः वाचालाः असम्बद्धप्रलापिन इत्यर्थः, गायन्तश्च दीव्यन्तश्च क्रीडयन्तः वादयन्तश्च वादित्राणि नृत्यन्तश्च, हसन्तश्च रममाणाश्च अक्षादिभिः क्रीडयन्त प्रमोदजनक्रीडया क्रीडां कुर्वन्तः शासयन्तश्च परेभ्यो गानादी शिक्षयन्तः श्रावयन्तश्च मनोभिरोचकवचनादि श्रावयन्तः जल्पन्तश्च कल्याणप्रदवाक्यानि रावयन्तः शब्दान् कारयन्तः स्वप्रोक्तवाक्यानि अनुवादयन्त इत्यर्थः शोभमानाश्च मनोज्ञवेषादिना स्वयम् शोभयन्तश्च परान् मनोज्ञवेषादिना आलोकमानाश्च पुण्यशालिनं भरतचक्रिण राजराजस्यावलोकनं कुर्वन्तः जयजयशब्दं च प्रयुजानाः पुरतो यथानुपूर्व्या पूर्वोक्तपाठक्रमेण सम्प्रस्थिताः ' एवं उववाइय गमेण जाव : तस्सरणो पुरओ महमायासधरा उभओ पासिं जागा णागधरा पिट्टओ रहा रहसंगेल्ली अहाणुपुच्चीए संपट्टिया' इति एवम् उक्तक्रमेण औपपातिकगमेन प्रथमोपाङ्गगत पाठेन तावद्वक्तव्यं यावत् तस्य भरतस्य राज्ञः पुरतः महाश्वाः बृहत्तुरङ्गाः अश्वघरा अश्वधारक पुरुषाः गजरत्नारूढ भरतस्य उभयतः द्वयोः पर्श्वयोः नागाः हस्तिनः नागधराः हस्तिधारक पुरुषाच पृष्टतः पृष्टभागे रथारथसङ्गल्ली रथसमुदाय देशीयोऽयं शब्दः जन, अनेक वाचालजन - असंबद्ध प्रलापोजन, गाते हुए भिन्न २ प्रकार को क्रीडा करते हुए, अनेक बादित्रों को बजाते हुए नृत्यकरते हुए, हँसते हुए, अक्ष आदि के द्वारा खेलते हुए प्रमोदजनक क्रीडा करते हुए, दूसरों को गान आदि सिखाते हुए, मनोभिरोचक वचनों को सुनाते हुए, मीठे २ शब्दों को दूसरों के प्रति उच्चारण करते हुए, अपने ही द्वारा कहे गये वचनों का अनुवाद करते हुए मनोज्ञवेष आदि से अपने को और दूसरों को सज्जित करते हुए, एवं राजाओं के राजा पुण्यशाली भरत चक्रों का अवलोकन करते तथा जय जय शब्द का प्रयोग करते हुए प्रस्थित हुए ( एवं उववाइयगमेणं जाव तस्स रण्णो पुरओ मह आसा आसघरा उभओ पासि णागा णागधरा पिट्ठओरहा रहसंगेल्लो अहाणुपुत्रीए संपट्टिया) इस तरह प्रथम उपाङ्ग औपपातिक सूत्र के पाठ के अनुसार यहाँ “उस भरत राजा के आगे बड़े घोड़े, अव धारक पुरुष दोनों ओर हाथी, हस्तिधारक पुरुष, पीछे रथ और रथों का समूह चला" અનેક કીકુત્સ્ય-કાયાની કુચેષ્ડા કરનારા-ભાંડજના, અનેક વાચાલ જને, અસ’બહું પ્રલાપીभना, गाता-गातां भिन्न प्रभारी डीडीओ रता, मने वाघो वजाडता, नृत्य ४रता, હસતા, અક્ષ વગેરે દ્વારા રમતા, પ્રમોદકારી ક્રીડાએ કરતા ખીજાઓને સંગીત વગેરે કલા શીખવતા, મનેાભિરેાચક વચનાં સંભળાવતા. બીજાના માટે મધુર શબ્દો એટલતા પેાતેકહેલા વચનાને અનુવાદિત કરતા મનેાજ્ઞવેષ વગેરેથી પેાતાની જાતને અને ખીજાઓને સુસજ્જિત કરતા, રાજાઓના પણ રાજા પુણ્યશાળી ભરતચક્રીના દન કરતા તથા જય भ्य शब्दाने उच्चारता अस्थित थया ( एवं उववाईयगमेण जात्र तस्स रण्णों पुरओ महमासा आसरा उभओ पालि जागा णागाधरा पिट्ठओ रहा रहसंगेल्ली अहाणुपुव्वीप संपट्टिया ) मा प्रभावे प्रथम उपांग सोपपातिक सूत्र ना या भुभम सही " ते भरत રાજાની આગળ મેાટા-મૈાના ઘેાડા, અશ્વધારક પુરુષો, બન્ને તરફ હાથીએ હસ્તિધારક પુરૂષો પાછળ રથ અને અનેક રથેાના સમૂહા ચાલ્યાં, એ પાઠ સુધીનું કથન અપેક્ષિત છે, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994