Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

Previous | Next

Page 829
________________ प्रकाशिका टीका तृ. ३ वक्षस्कार: सू० २४ ऋषभक्टविजयवर्णनम् ८९५ ण्हित्ता रहं ठवेइ ठवित्ता छत्तलं दुवालसंमिअं अट्ठकण्णिअं अहिगरणिसंठिअं सोवण्णिअं कागणिश्यणं परामुराइ परामुसित्ता उसभकूडस्स पब्वयस्स पुरथिमिल्लसि कडगंसि णामगं ओउडेइ-ओसप्पिणी इमीसे तइआए समाइ पच्छिमे भाए । अहमंसि चक्कवट्टी भरहो इअ नामधिज्जेणं ॥१॥ अहमंसि पढमगया अहयं भरहाहियो णवरिंदो। णस्थिप्रह पडिसत्तू जिअंमए भारहं वासं ॥२॥ इति कटु णामगं आउडेइ णापणं आउडित्ता रहं परावत्तेइ परावत्तित्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्म देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जाव दाहिणं दिसि वेअद्भपव्वयाभिमुहे पयाते यावि होत्था ॥सू०२४॥ . छाया-ततः खलु स भरतो राजा तुरगान् निगृह्वाति निगृह्य रथं परावर्तयति परावयं यत्रैव ऋषभकूटं तत्रैव उपागच्छति उपागत्य ऋषभकूट पर्वतं त्रिः कृत्वः रथशिरसा स्पृशति स्पृष्ट्वा । तुरगान् निगृह्णाति निगृह्य रथं स्थापयति स्थायित्वा षटूतलं द्वादशास्रिकम् अष्ट कणिकम् अधिकरणिसंस्थितं सौवणिक कोकणीरत्नं परामृशति परामृश्य ऋषभक्टस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये कटके नामकम् आजुडति-अवसर्पिण्याः अस्याः तृतीयायाः समायाः पश्चिमे भागे । अहमस्मि चक्रवर्ती भरत इति नामधेयेन ॥ अहमस्मि प्रथम राजा अहं भरताधिपो नरवरेन्द्रः । न स्ति मम प्रति शत्रुः जितं मया भारत वर्षम् ॥२।। इति कृत्वा नामकम् आजुडति नामकम् आजुड्य रथं परावत्त यति परावर्त्य यत्रैव विजयस्कन्धावारनिवेशो यत्रैव बाहिरिका उपस्थानशाला तत्रैव उपागच्छति उपागत्य यावत् क्षुद्रहिमवद् गिरिकुमारस्य देवस्य अष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तार्या सत्याम् आयुध गृहशालातः प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य दक्षिणां दिशं वैताढय स्वताभिमुख प्रयाते चाप्यभवत् ॥सू०२४॥ टीका - "तएणं से" इत्यादि । 'तएणं से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ णिगिण्हित्ता रहं परावत्तेइ ' ततः हिमवत्साभरत का ऋषभकूट को और गमन'तएणं से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ" - इत्यादि सू० २४ टोकार्थ- (तएणं) हिमवत् साधन करने के बाद (से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ) उस ભરત મહારાજાનું ઋષભક્ટ તલ્ફ પ્રયાણ तपण से भरहे गया तुरए-णिगिण्हइ “इत्यादि ॥२४ टी--(तएणं) हिमवतनी साधना ४ मा (से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ) ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994