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प्रकाशिका टीका तृ० ३ वक्षस्कारः सू० १९ आपातधिलायानां देवोपासनादिकम् ७६७... पगच्छंति परस्परं साक्षीकृत्य प्रतिज्ञातं कार्यमवश्यं कर्त्तव्यमिति दृढी भवंतीत्यर्थः 'डि मुणेत्ता' प्रतिश्रुत्य अभ्युपगत्य 'ताए क्किट्ठाए तुग्आिए जाव वोतिवयमाणा वीतिवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्ध भरहेवासे जेणेव सिंधू महाणई जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवागच्छंति' तेदेवास्तया उत्कृष्टया त्वरितया यावत् चपल्या चण्डया सिंहया दिव्यया देवगत्या व्यतिव्रजन्तो यत्रैत्र जम्बूद्वीपो द्वीपो यत्रैव उत्तरभरतार्द्ध वर्ष यत्रैव सिन्धुमहानदी यत्रैव चापातकिगताः तत्रैवोपागच्छंति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'अंतलिक्खपडिवण्णा सखिखिणियाइं पंचवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिया ते आवाडचिलाए एवंचयासी' अंतरिक्षप्रतिपन्नाः आकाशमार्गावलम्बिनः सकिंकिणीकानि पञ्चवर्णानि शुक्लनीलादि पञ्चवर्णयुक्तानि वस्त्राणि प्रवराणि परिहिताः सन्तः तान् आपातकिरातान् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिपुः उक्तवन्तः, किमुक्तवन्त इत्याह 'हंभो' इत्यादि 'हभो आवाडचिलाया ! जण्णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! वालुयासंथारोवगया उत्साणगा अबसणा अट्ठमभत्तिया भम्हे कर्तव्य है. कि अब हमलोग उन आपातकिरातों के पास चलें इस प्रकार से आपस में विचार करके उनलोगों ने उनके पास आने का निश्चय कर लिया (पडिसुणेत्ता ताए उक्किद्राए तुरियाए जाव वीइवयमाणा-वाइवयमाणा जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवाच्छंति) पूर्वोक्तरूप से निश्चय करके फिर वे उस उत्कृष्ट त्वरित दिव्य देवगति से चलत-२ जहाँ पर जम्बूद्वीप नाम का द्वीप था और उसमें भो जहां पर उत्तरार्द्ध भरत क्षेत्र था और उसमें भी जहां पर सिंधु नाम को महानदी थी वहां पर आये ( उवागच्छित्ता अंतलिक्वपांडवन्ना सखिखिणियाई पंचवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिया ते आवाडचिलाए एवं वयासी ) वहां आकर के नोचे नहीं उतरे किन्तु आकाश में हो रहे और वहीं से उन्होंने जोकि क्षुद्र घंटिनाओं से युक्त श्रेष्ठ वस्त्रों को अच्छी तरह से अपने-२ शरीर पर धारण किये हुए हैं उन आपातकिरातों से ऐसा कहा-(हं भो ! आवाडचिलाया ! जण्णं तुब्भे देवाणुप्पिया वालुयासंथारोवगया उत्ताणगा अवसण! अट्ठमभत्तिया अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे भणसी करेमाणा-२ चिट्ठह ) हे अपातकिरातो ! जो तुम लोग देवानुप्रिय वालुका निर्मित संथारों के ऊपर नग्न સર્વે તે આપાતકિરાતો પાસે જઈએ આ પ્રમાણે પરસ્પર વિચાર કરીને તેમને તેમની પાસે भवन निश्चय ४0 बीघा. (पडिसुणेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाव वोइवयमाणा २ जेणेव जंबुद्दोवे दीवे उताद्धभरहे वासे जेणेव सिंधू महाणई जेणेव आझाडचिलाया तेणेव उवागछति) 0 प्रण निश्वः दाने की तमे स ट त्वरित यावत् दिव्य है. ગતિથી ચાલતા-ચાલતા જ્યાં જબૂદ્વીપ હતો અને તેમાં પણ જ્યાં ઉત્તર! મતક્ષેત્રહ मन त ५५ सिधु नाममानवी ती त्यां माव्या. (उवागच्छित्ता अन्नलिक्ख परिवाना सखिखिणियाई पंचण्णाइ वत्थाई पवरपरिहिया ते आवाडचिलाए एवं पयासी ત્યાં પહોંચીને તેઓ નીચે નહિ ઉતરતા આકાશમાં જ સ્થિર રહ્યા. અને તેથી જ તેમણે કે જેમણે ક્ષુદ્રઘંટિકાઓથી યુક્ત શ્રેષ્ઠવાને સારી રીતે પિતાના શરીર ઉપર ધારણ કરી शल्याछे सेवनागभा२हेवा थे- मापात (शता ने मा प्रमाणे ---( भो ! आवा
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