________________
प्रकाशिका टीका-द्वि. वक्षस्कार सू. ४५ भगवतः श्रमणावस्थावर्णनम्
३७३ अरति:-मनस उद्वेगः, भयं प्रसिद्धं, परित्रासः-आकस्मिकं भयं च यस्मात् स तथाभूतः, पुनः 'णिम्ममे' निर्ममा-ममत्वरहितः, 'णिरहंकार:' अहङ्कार वर्जितः, अतएव 'लहुभूए' लघुभूत: ऊर्ध्वगतिकः तत एव 'अगंथे' अग्रन्थः बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहितः 'वासीतच्छणे' वासीतक्षणे वास्या-सूत्रधारोपकरणविशेषेण यत्तक्षणं-स्वच उत्खननं तत्रापि 'अदुहे' अद्विष्टः-द्वेषवर्जितः तथा 'चंदणाणुलेवणे' चन्दनानुलेपने 'अरत्ते' अरक्तः-रागरहितः, कश्चिद् भगवतः शरीरस्वचं बास्या तक्ष्णुयात् , कश्चित् शरीरं चन्दनेनानुलेपयेत् , भगवान् द्वेषरागराहित्येन सम इतिभावः तथा 'लेटुम्मि' लेष्टौ लोष्ठे 'कंचणम्मिय' काञ्चने-सुवर्णे च 'समे' समः लोभराहित्येन तुल्यः, 'इहलोए' इहलोके-मनुष्यलोके 'परलोए' परलोके-देवभवादौ च 'अपडिबद्धे' अप्रतिबद्धः-सुखाशाराहित्येन अभिलाषरहितः, तथा 'जीनियमरणे' जीवितमरणे जीवितं च मरणं च जीवितमरणं तत्र 'निर वकंखे' निरवकाङ्क्षः-आकाङ्क्षा रहितः इन्द्रादिकृत सत्कारादिप्राप्तौ जीवितविषये मानसिक उद्वेग, भय, और परित्रास आकस्मिक भय इनसे सर्वथा रहित बन चुके थे, निर्मम ममता रहित हो चुके थे, निरहंकार अहंकार से वर्जित हो चुके थे, अतएव ये "लहुभूए" इतने अधिक हल्के उर्ध्वगतिक बन चुके थे. कि इन्हें वाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को आवश्यकता ने अपने में नहीं बांधा, "अगंथे वासो" अतः निम्रन्थ अवस्थायुक्त हुए इन प्रभु को अपने ऊपर "तच्छणे अदुडे" कुल्हाडाचलाने वाले के प्रति भी किसी प्रकार का द्वेष भाव नहीं था और अपने ऊपर “चन्दणाणुलेवणे अरत्ते" चम्दन का लेप करने वाले के प्रति थोड़ा सा भी राग भाव नहीं था, किन्तु दोनों प्रकार के प्राणियों पर इन के हृदय में समभाव था रागद्वेष से रहित परिणाम था, "लेहुम्मि कंचणम्मि य समे" ये लोष्ठ और काञ्चन में भेद बुद्धि से रहित हो चुके थे, "इहलोए" इसलोक में मनुष्यलोक में एवं "परलोए परलोक देवभव आदि में "अपडिबद्ध" इनकी अभिलाषा बिलकुल ध्वस्त हो चुकी थी, "जीवियमरणे निरवकखे" जीवन और मरण में ये आकांक्षा रहित बन चुके थे, इन्द्रादि द्वारा सत्कार की प्राप्ति होने ભય અને પરિત્રાસ-આકસ્મિક ભયથી સર્વથા રહિત બની ગયા હતા. નિર્મમ-મમતાથી રહિત થઇ ગયા હતા. નિરહંકાર-અહંકાર રહિત થઈ ગયા હતા. એથી જ એ શ્રી “દુभूए सेटमा e-BEगति-थई गया पातेभने माय भने माय तर परिग्रहना भावश्यता पोतानामा ४ा नही', 'अगंथे वासी' तथा निन्य अवस्था पाजामने। ते प्रभुन पातानी ५२ 'तच्छणे अदुढे' खायाना२ ५२ ५५ तन द्वेष मापन डतो मन पोताना ५२ 'चंदणाणुलेवणे अरत्ते' यहनना ५ ४२नारा प्रत्ये १२॥ सरमो પણ રાગ ભાવ ન હતો. પરંતુ બન્ને જાતના પ્રાણીઓ તરફ તેમના હૃદયમાં સમ ભાવ
तो- द्वेष-विहीन थ गया al. 'लेहुम्मि कंचणम्मिय समे' तम्या सोनामा सह मुधि विनाना गया ता 'इहलोए' मां-मनुष्य मा भने 'परलोए' ५२४-देव सव माहिमा 'अपडिबद्धे' मेमनी मनिलाषा एत: नास पाभी हती. जीवियमरणे निरवकंखे न अने भरमा मेसीमाक्षा २हित २७ गया हता,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org