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जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इत्यादि-'मुहोवभोगं' इत्यन्तपदत्रयस्यार्थः पञ्चपञ्चाशत्तमे सूत्रेऽवलोकनीय इति (पासिता) दृष्ट्वा अवलोक्य (विलेभ्यः (णिद्धाइस्संति) निर्धाविष्यन्ति-निर्गमिष्यन्ति (णिद्धा. इत्ता) निर्धाव्य-निर्गम्य (हतुट्ठा) हृष्टतुष्टाः-हृष्टाः आनन्दिताश्च ते तुष्टा:-संतोषमुपगताश्चेति तथा-आनन्द संतोष चोपगता इत्यर्थः (अण्णमण्णं) अन्योन्यम् परस्परं (सद्दा. विति) शब्दयन्ति, (सद्दावित्ता) शब्दयित्वा (एवं वदिस्संति) एवं वदिष्यन्ति-कथयिष्यन्ति, किं कथयिष्यन्ति ! इत्याह 'जाए ण' इत्यादि । (जाए णं) जातं खलु (देवाणुप्पिया ! ) देवानुपियः (भरहे वासे) भरतं वर्षे (परूढ-रुक्ख-गुच्छे-गुम्म-लय-वल्लितण-पव्यय-हरिय जाव सुहोवभोंगे) प्ररूढ़-वृक्ष-गुच्छ -गुल्म-लता-वल्लि-तृण-पर्वगहरित यावत् सुखोपभोगम् , (तं जे णं देवाणुप्पिया अम्हं केइ) तद् यः खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं कश्चित्-हे देवानुप्रियाः भरतवर्षस्य वृक्षगुच्छगुल्मलतादिसंपन्नत्वेन मुखोपभोग्यत्वात् अस्माकं मध्ये यः कश्चित् (अज्जप्पभिई) अधप्रभृति अधारभ्य (असुभं कुणिमं आहार) अशुभं कुणपम् आहारमअप्रशस्तं मांसाहारम् (आहारिस्सइ) आहरिष्यति (से णं) स खलु (अणेगाहिं छायाहिं) एनेकाभिश्छायाभिः अनेकसंख्यक पुरुषच्छाया यह क्षेत्र सुख से उपभोग करने योग्य हो चुका है इस प्रकार का (पासित्ता) ख्याल करके वे (बिलेहितो णिद्धाइस्संति) अपने अपने विलों से बाहर निकल आयेंगे. और (णिद्धाइत्ता) बाहर निकल कर के फिर वे (हट्टतुट्ठा अण्णमण्णं सदाविति) वडे ही आनन्द से और संतोष से युक्त हुए आपस में एक दूसरे के साथ विचार विनिमय करेंगे (सदावित्ता एवं वदिस्संति विचार विनिमय करके फिर वे इस प्रकार से एक दूसरे से कहेंगे (जाएणं देवाणुप्पिया ! भरहे वासे परूढरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पचय-हरिय-जाव सुहोवभोगे) हे देवानुप्रियो ! भरत क्षेत्र वृक्षों से, गुच्छों से, गुल्मों से, लताओं से, वल्लियों से, तृणों से एवं हरित दर्वादिको से युक्त होकर सुखोपभोग बन गया है (त जे णं देवाणुप्पिया अहं केइ अज्जप्पभिइ असुभं कुणिमं आहारं आहरिस्सइ) अतः अब जो कोई हे देवानुप्रियो ! हम लोगों में से आज से लेकर अशुभ, अप्रशस्त-आहार करेगा (से णं अणेगाह छायाहिं वजणिज्जति) वह अनेक पुरुषों मनुष्य नशे मा क्षेत्र सुभोपलाग्य य युध्य छे तेमासत (पासित्ता) प्यास उशन तमा (बिलेहितो णिद्धाहस्संति) तपाताना माथी मा२ नीजी मावशे मन (निद्धाइत्ता) पहार निजी पछी तय। (हहतुट्टा अण्णमण्णं सहर्विति) गहु मानहित अने सतुष्ट थये तसा ५२२५२ - भीनी साथे विया२ विनिमय ४२ (सहवित्ता, एवं वदिस्संति) विया२ विनिमय ४शन पछी तेथे या प्रमाणे मीलने ४डेशे (जए णं देवाण प्पिया ! भरहे वासे पउढरुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपब्धयहरिय जाव सुहोवभोगे) 3 દેવાનુપ્રિય ભારતક્ષેત્રન ક્ષોથા, ગુચ્છાથી, ગુલમથી લતાએથી વલિઓથી તેમજ હરિત દૂર वृहि था युत थछन सुजाय भोग्य भनी आयुछे (तंजेण देवुणुप्पिया अम्हं केइ अजप्प मिइ असुभ कुणिम आहारं आहरिस्सइ) मेथी थी आदाभाथी ३ ५९२ देवानुप्रिय।। अशुभ-मप्रशस्त हार ४२६० (से णं अण्णे णादि छाहिं वणिज्जति) ते भने
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