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प्रकाशिका टीका f. वक्षरकार सु. ४० ऋषभस्वामिनः दीक्षितानन्तरकर्तव्यनिरूपणम् ३१७ प्रभुरपि गम्भीराशय इत्यर्थः । अयं भावः - यथा समुद्रोऽगाधत्वान्न केनापि तलावच्छेदेन स्पर्शनीयो भवति, तथैवासौ प्रभुरपि परैरज्ञातस्वाभिप्राय निरुपमज्ञानवत्वेऽपि रहः कृतदुश्चरितानामपरिस्रावित्वाद् हर्षशोकादिकारणसद्भावेऽपि तद्विकारादर्शनाद वेति । तथा - ' मंद इव अकंपे' मन्दर इव अकम्पः यथा मन्दरपर्वतोऽकम्पो भवति तथैवासौ प्रभुरपि स्वप्रतिज्ञातेषु तपःसंयमेषु दृढाशयत्वेन परीषहोपसर्गादिकृतबाधासंयुक्तोऽपि ततोsप्रच्यवनशील इति भावः । तथा 'पुढवीविव सव्वफासविस' पृथिवी इव सर्वस्पर्शविषहःयथा पृथिवी सर्वस्पर्शसहनशीलो भवति तथैव प्रभुरपि सर्वविधानुकूल प्रतिकूल स्पर्श सहनशीलो भवतीति तथा 'जीवविव अप्पडिहयगइत्ति' जीव इव अप्रतिबद्धगतिरिति । यथा जीवस्य कटकुड्यादिभिर्गतिप्रतिघातो न भवति तथैवास्य प्रभोरपि आर्यानार्यदेशेषु संचरत परपाखण्डिकृतप्रतिघातो नाभूदित्यर्थः । इति शब्दो सन्दर्भपरिसमाप्तौ ॥०४०॥
नहीं होता है उसी तरह प्रभु भी दूसरों के द्वारा जिनका अभिप्राय जाना जाय ऐसे नहीं थे । अथवा प्रभु निरुपम ज्ञानशाली थे, फिर भी एकान्त में कृत दुश्चरितों के अपरिस्रावो होने के कारण हर्षशोकादि कारणों के सद्भाव में भी तद्विकार का उनमें अदर्शन रहता था, इसलिये वे सागर के जैसे गंभीर थे, तथा "मंदरो इव अकंपे मन्दर के समान प्रभु अकम्प थे, जिस प्रकार मन्दर पर्वत भयंकर से भी भयंकर आंधी के समक्ष अकम्प अडिग रहता है उसी प्रकार प्रभु भो अपने द्वारा प्रतिज्ञात तपः संयमों के ऊपर दृढाशयवाले होने के कारण परीषह और उपसर्ग आदि के द्वारा बाधा संयुक्त होने पर भी उनसे विचलित नहीं होते, पृथिवो की तरह प्रभु "पुढवी विव सव्वफास विसहे" सर्व प्रकार के स्पर्शो के सहन कर्त्ता थे, पृथिवो जिस प्रकार सर्व प्रकार के स्पर्शो को सहन करने वाली होती है उसी प्रकार से प्रभु भी सर्व प्रकार के अनुकूल, प्रतिकूल स्पर्शो के सहन करने के स्वभाव वाले थे, “जीवोविव जपडिहयगइत्ति' प्रभु जीव की तरह अप्रतिबद्ध गतिवाले थे, जीव की गति जिस प्रकार कट कुड्यादिकों द्वारा प्रतिहत नहीं होतो उसो प्रकार प्रभु का विहार भो आर्य अनार्य देशों में होता हुआ भी पाखण्डियों द्वारा प्रतिघातयुक्त नहीं होता ||४०||
હતા. પ્રભુના અભિપ્રાય કોઇ જાણી શકતા ન હતા. અથવા પ્રભુ નિરુપમ જ્ઞાનચાલી હતા. છતાંએ એકાંતમાં કૃત દુૠરિતાના અપરિસાવી હાવાં ખદલ હષ શાકાહ કાણેાના સદ્ભા વમાં પણ તદ્ વિષયક વિકારાનેા તેઓશ્રીમાં અભાવ રહેતા હતા. એથી જ તેઓ શ્રી સાગ રની જેમ ગ ંભીર હતા તેમજ મન્દરની જેમ અકમ્પ હતા. જેમ મન્દર પર્યંત ભયકરમાં ભયંકર સખત આંધી ની સામે અકલ્પ અડગ રહે છે. તેમજ પ્રભુ પણ પાતાના વડે પ્રતિજ્ઞાત તપઃ સૌંચમા ઉપર દૃઢ આશયવાળા હેાવાથી પરીષહ અને ઉપસગ વગેરે વડે भाषा संयुक्त डोवा छतां तेमनाथी वियसित थता नथी, पृथिवीनी प्रेम अलु " सर्व स्पर्श विषहः " सर्व प्रभारना स्पर्शो ने सहन ४२नार ता. पृथिवी प्रेम सर्व प्रारना स्पर्शनि સહન કરનારી છે તેમજ પ્રભુ પણ સર્વ પ્રકારના અનુકૂલ-પ્રતિકૂલ સ્પĒને સહન કરી શકે तेवा स्वभाववाला ता. "जीव हव प्रतिबद्धगतिः" लवनी प्रेम प्रभु खप्रतिमद्धगतिवाणा હતા. જીવની ગતિ જેમ કટ કુયાદિ વડે પ્રતિહુત હાતી નથી તેમજ પ્રભુના વિહાર પણ આય અનાય દેશમાં હાય છે છતાંએ તે યાખ’ઢીએ વડે પ્રતિથાતયુક્ત થતા નથી. સુ જમા
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