Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
________________
१७०
भगवती सूत्रे
इहगए पोग्गले परियाइत्ता बिउब्बर' हे भदन्त ! स खलु देवः किम् इहगतान् प्रज्ञापकसमीप क्षेत्रस्थितान पुद्गलान पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति ? 'तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्बइ ?' अथवा देवः किं तत्रगतान् देवलोकस्थितान् पुद्गलान् पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति ?, अथवा 'अण्णस्थगए पोग्गले परियाइता विउव्वइ ?' अन्यत्रगतान् प्रज्ञापकक्षेत्रात् देवलोकाच्च
यह है कि देव यदि अपने शरीर से जो उत्तरशरीररूप विक्रिया ( विकुर्वणा) की निष्पत्ति करे वह ऐसी भी कर सकता है कि जिसमें एक ही वर्ण हो और एक ही आकार हो । पर इसमें तात्पर्य यही है कि उसे इस प्रकार से उत्तरविक्रियाकी निष्पत्ति करनेके लिये बाह्यपुद्गलोंका ग्रहण करना ही पडेगा । अन्यथा वह ऐसा नहीं कर सकता है। चाहे वह कितना भी महर्द्धिक आदि विशेषणोंवाला क्यों न हो । अब गौतम प्रभुसे ऐसा पूछते हैं कि से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वह' हे भदन्त ! यदि देव बाह्यपुद्गलों को ग्रहण करके ही ऐसा कर सकता है तो फिर वह यहां पर वर्तमान पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करने में समर्थ होता है? या 'तत्थगए पोगले परियाइता विकुव्वद्द' तत्रगत देवलोक में वर्तमान पुद्गलोंको ग्रहण करके विकुर्वणा करने में समर्थ होता है ? या 'अण्णस्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वह' मेरे समीपस्थ क्षेत्र से और देवलोक से
C
આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે દેવ જો પાતાના શરીરથી જે ઉત્તરશરીરરૂપ વિક્રિયા (વિકુવ`ણા) ની નિષ્પત્તિ કરે, તે એવી રીતે પણ કરી શકે છે કે જેમાં એક જ વણુ' હાય અને એક જ આકાર હાય પણ એ પ્રકારની વિકુણા કરવામાં તેને ખાદ્ય પુદ્ગલેને અવશ્ય ગ્રહણ કરવાજ પડે છે, માહ્ય પુદ્ગલાને ગ્રહણ કર્યા વિના તે એવી વિષુવ`ણા કરી શકતા નથી.
हवे गौतम स्वामी महावीर प्रभुने वो उन छे छे 'से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइता बिउब्बइ ' हे लहन्त ! के हेव माघ युगसोने श्रद्धालु કરીને જ એવું કરી શકતા હાય, તે। હું એ જાણવા માગું છું કે તે અહીં રહેલાં (મારી પાસેના ક્ષેત્રમાં રહેલાં) પુદ્ગલાને ગ્રહણુ કરીને શું વિણા કરી શકે છે ? કે 6 तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्बइ १ } देवलेोभां रसां युगलाने अडथ ४रीने विठुवा ४री शठे छे ? है ' अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ? '
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ