Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

Previous | Next

Page 840
________________ ८२२ भगवतीसो सकाशाद् धर्मोपदेशं श्रुत्वा प्रतिगता, 'तए णं से कालोदाई अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ' ततः खलु स कालोदायी अनगारः अन्यदा कदाचित् यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरः, तत्रैव उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता समगं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी' उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत-'अत्थिणं भंते ! जीवाणं पावाकम्मा पावफलविवाग संजुत्ता कजति ? हे भदन्त ! अस्ति खलु जीवानां पापानि कर्माणि-प्राणातिपातादि-मिथ्यादर्शनशल्यपर्यन्तानि अष्टादश पापकर्माणि, पापफलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते भवन्ति ? हुए यावत् उस गुणशिलक उद्यान में पधारे-धर्मका उपदेश सुनकर आई हुई परिषद् अपने २ स्थान पर वापिस गई । 'तएणं से कालोदाई अणगारे अन्नया कयाइं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छई' इसके बाद कालोदायी अनगार किसी एक समय जहां पर श्रमण भगवान महावीर थे वहां पर आये. 'उवागच्छित्ता' वहां आकर उन्होंने 'समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ' श्रमण भगवान महावीर को वंदनाकी 'वंदित्ता नमंसित्ता' वंदना नमस्कार करके फिर 'एवं वयासी' प्रभु से उनोंने इस प्रकार से पूछा-'अस्थि णं भंते ! जीवाणे पावाकम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कजति' हे भदन्त ! जीवों के पापकर्म-प्राणातिपातआदि से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक के अठारह १८ पापकर्म-पापफलरूप विपाकसे संयुक्त होते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता, अत्थि' हां, कालोदायिन् ! स्थाने पाछा श्या. 'तएण से कालोदाई अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छई' त्या२ मा ४।४ २४ समये सहायी मार orयां महावीर प्रभु विमान ता त्या माव्या. 'उवागच्छिता' या मावीन तेमाणे समण भगवं महावीरं वंदइ, नमसई' श्रम भगवान महापारने व भने नभ७।२ ४ा', 'वदित्ता नमसित्ता' भने । नभ२४।२ ४शन "एवं वयासी' तेमधे महावीर प्रसुने २मा प्रभारी प्रश्न पूछया- 'अत्थिण भंते ! जीवाणं पावाकम्मा पावफलविवागसजुत्ता कज्जति ? ' महन्त ! वान ५।५४ (प्रातिपात मा १८ पायौ ) शुं पा५५१३५ विभाजन डाय छ ? उत्तर- 'हता, अत्थि' હે કાલેદાયી ! છેના પાપકર્મો પાપફળરૂપ વિપાકવાળાં અવશ્ય હોય છે. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫

Loading...

Page Navigation
1 ... 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866