Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 845
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ७ उ. १० सु. ३ शुभाशुभकर्मफल निरूपणम् ८२७ कल्याणानि कर्माणि यावत् कल्याणफलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते ? भगवानाह - 'कालोदाई ! से जहानामए के पुरिसे मणुष्णं थालीपागमुद्धं अट्ठारसर्वजणाउलं ओसहमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा' हे कालोदायिन् ! तद्यथा नाम कश्चित् पुरुष: मनोज्ञ = सुन्दरं स्थालीपाकशुद्धम् अष्टादशव्यञ्जनाकुलम् औषधिमिश्र= तिक्तकटुकषायाद्यौषध संमिलित भोजनं भुञ्जीत, 'तस्स णं भोयणस्स आवाए नो भए भवइ , तस्य खलु तिक्तकटुकषायाद्यौषधमिश्रस्य भोजनस्य आपातः आदि संसर्गः नो भद्रको भवति तिक्ताद्यौषधमिश्रत्वात् किन्तु 'तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूत्रत्ताए, सुवन्नत्ताए जात्र सुहत्ताए नो दुक्खत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ' ततः पश्चात् तद् भोजनं परिणमत् णं भंते ! जीवाणं कल्लाणकम्मा जाव कज्जति' हे भदन्त ! जीवों के कल्याणकर्म सुखलक्षणफल परिणामरूप विपाकसे संबद्ध कैसे होते हैं उत्तर में प्रभु कहते हैं 'कालोदाई !" हे कालोदायिन् ! ' से जहानामए केइपुरिसे मणुष्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसर्वजणाउल' जैसे कोई पुरुष सुन्दर तथा कडाही आदिमें बहुत अच्छी तरह से पकाये गये भोजन को कि जो अठारह प्रकारके व्यंजनोंसे युक्त हो तथा तिक्त कषायली आदि औषधियोंसे भी युक्त हो भोजन करे तो जैसे वह भोजन अपने खानेवाले पुरुष आदिको 'ओसहमिस्सं' तिक्त-कटुककषायली आदि औषधियोंसे मिश्रित होनेके कारण खाते समय 'आवाए नो भदए' स्वाद में अच्छा नहीं लगता है अर्थात् उस भोजनका आदि संसर्ग सुहावना प्रतीत नहीं होता है 'तओ पच्छा परिणममाणे२ सुरुवत्ता जाव सुहन्ताए, नो दुक्खत्ताए भुजोर परिणमइ' परन्तु कल्लाणकम्मा जान कज्जति ' हे लहन्त ! लवाना याशुम्भ सुलक्षण इज પરિણામરૂપ વિપાકવાળાં કેવી રાતે હાય છે? उत्तर- 'कालोदाई' डे असोहाथी ! ' से जहा नामए केइपुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसर्वजणाउल ' જેમકે કેાઇ પુરુષ સુંદર, કડાહી આદિમાં ઘણી સારી રીતે પકાવવામાં આવેલા, ૧૮ પ્રકારના શાક આદિથી યુકત હાય એવાં તથા કડવી, તુરી અદ્ધિ ઔષધિઓથી યુકત होय गोवा लेोन्ननो भाडार ४रे छे. तो ते लेोन्न 'ओसहमिस्स ' उडवा, तुरा माहि स्वाहवाजी औौषधियोथी मिश्रित होवाने ठार 'आवाए नो भदए' शमाभां भीहु सागतु नथी - ते लोनी आरंभिः संसर्ग रुचि४२ लागतो नथी, तओ पच्छा परिणममाणे२ सुरुवत्ताए सुवन्नत्ताए जाव सुहत्ताए. नो दुक्खत्ताए भुज्जोर શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ

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