Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 719
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ७ उ.९ सू. २ महाशिलाकण्टकसंग्रामनिरूपणम् ७०१ महाशिलाकण्टकं नाम संग्राम युद्धं संग्रामयमाणः युद्धं कुर्वाणः 'नवमल्लई नव लेच्छई कासीकोशलगा' नव मल्लकिनः, नव लेच्छकिनश्च काशीकोशलकान् काशी-काशीदेशः कोशला=अयोध्या तयोरधिपतीन् इत्यर्थः काशीदेशस्वामिनः नत्र मल्लकिनः, कोशलदेशस्वामिनो नवलेच्छकिनः, एवम्-'अट्ठारसवि गणरायाणो हयमहियपवरवीरघाइय-निवडियचिंधद्धयपडागे' अष्टादश अपि गणराजान् हतमथितप्रवरवीरघातित-निपतितचिह्नध्वजपताकान, तत्र हताः महारतः, मथिताः मानमर्दनतः, प्रवरवीराघातिताच येषां तान् , एवं निपतिताः= निपातिताः चिह्नध्वजाः, पताकाश्च लघुध्वजा येषां तान् ‘किच्छपाणगए दिसो दिसि पडिसेहित्था' कृच्छ्रमाणगतान् कष्टगतप्राणोन् कोणिकराजः दिशोदिशं चतुर्दिशं प्रतिषेधितवान् युद्धान्निवारितवान् ॥१० २॥ माणे' इस तरह महाशिलाकंटकसंग्राममें युद्ध करते हुए उन कूणिक राजाने नवमलई नवलेच्छई कासी कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाओ' काशीके अधिपति नौमल्लकियोंको और कौशल देशके अधिपति नौ लेच्छकियोंको इस प्रकार अठारह १८ गणराजाओंको 'हयमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिंधद्धयपडागे' प्रहारोंसे हत करदिया, मथित-मर्दित मानवाला करदिया, उनके प्रवर वीर योद्धाओं को नष्टकर दिया और उनकी चिन्ह. ध्वजाओंको, लघुपताकाओंको नीचे जमीन पर गिरादिया । 'किच्छपाणगए दिसोदिसिं पडिसेहित्था' अन्तमें उसने उन सबके लिये कष्टगत प्राणवाला बनाकर चारों दिशाओंमें भगा दिया अर्थात् युद्धसे हटादिया ॥ सू० २ ॥ संगामेमाणे' त्यारे भाशिalsex संग्राममा युद्ध मेला २ ते नि: २००-ये 'नवमल्लई नवलेच्छई कासी कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाओ' शीना मधिपति નવ મહેલજાતિના ગણરાજાઓને અને કેશલ દેશના અધિપતિ નવ લિચ્છવી ग नमाने - २॥ शत पुस १८ गएरागाने 'हयमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिंधद्धयपडागे , प्रथा भी ४२नाध्या, तमना भाननु भहन ४॥ નાખ્યું, તેમના ઉત્તમોત્તમ દ્ધાઓને હણી નાખ્યા અને તેમની ચિન્તયુકત ધજાઓ भने सधु पतन भीन ५२ ३४ी छने धूमा गोजी. किच्छपाणगए दिसोदिसिं पडिसेहित्था' मने सोन 'टात प्रागुवा' नावाने सारे शिामा નસાડી મૂક્યાં. એટલે કે તેઓ એવા ભયભીત થઈ ગયા કે તેમનાં પ્રાણ બચાવવાને માટે સમરાંગણ છોડીને ચારે દિશામાં નાસી છૂટયા. સ. રા શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫

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