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विवेचन-सूत्र ३0 में बताया है-साधु गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय यदि वहाँ अन्य शाक्यादि भिक्षुओं को खड़ा देखे तो उनको लाँघकर गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे और न ही जहाँ वे खड़े हों उनके प्रवेश मार्ग पर खड़ा रहे, बल्कि एकान्त स्थान में जाकर खड़ा हो जाये। __इस विधान के पीछे दृष्टि यह है कि श्रमण के कारण अन्य भिक्षाचरों के भिक्षा में किसी प्रकार की अन्तराय नहीं पड़े और न ही उनके मन में ईर्ष्या-द्वेषभाव जागे। यह भिक्षु का सामान्य आचार है। आगे के विधान में कहा है-"गृहस्थ सबके लिए इकट्ठी आहार सामग्री देवे तो वे परस्पर बाँटकर खा लें, किसी प्रकार की मूर्छा, आसक्ति या कपटपूर्ण व्यवहार न करें।" उक्त कथन श्रमण आचार की दृष्टि से विचारणीय है अतः विवादास्पद है। आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने अन्य आगमों के सन्दर्भ देकर, वृत्तिकार शीलांकाचार्य तथा वार्ताकार पार्श्वचन्द्रसूरि के उल्लेखों की समीक्षा करते हुए लिखा है कि "गृहस्थ की ऐसी शर्त को निर्ग्रन्थ श्रमण किसी प्रकार स्वीकार नहीं कर सकता कि वह आहार-पानी लेकर अन्य शाक्यादि श्रमणों के साथ बाँटकर खा ले। यह न तो मुनि का उत्सर्ग मार्ग है और न ही अपवाद मार्ग।" वृत्तिकार ने इसे कठिन विकट परिस्थिति का अपवाद मार्ग मान लिया है किन्तु वार्ताकार का अभिप्राय है यहाँ पर ‘आउसत्तो समणा' यह सम्बोधन श्रमण के सांभोगिक साधुओं के लिए है, न कि अन्य मत के साधुओं के लिए। अतः आहार बाँटकर खाने का प्रकरण केवल सांभोगिक व साधर्मिक साधुओं से ही सम्बन्ध रखता है। (विस्तार के लिए देखें हिन्दी टीका, पृ. ८३४-८३६)
Elaboration-In aphorism 30 it is conveyed that if an ascetic while entering the house of a layman finds that some other seekers are already standing there, he should neither overtake to enter the house nor should he stand near the gate. Instead, he should go to some solitary place and stand.
The purpose of this code is that the presence of an ascetic should neither become the cause of depriving the other seekers nor should it invoke a feeling of jealousy or hate. This is the normal conduct of an ascetic. The next code is that “if the laymen gives food in lot, it should be distributed and eaten without greed, fondness or deceit." This statement is doubtful and has to be reviewed in context of ascetic conduct. After reviewing the commentaries by Sheelankacharya (Vritti) and Parshvachandra Suri (Varta) and drawing references from other Agams, Acharya Shri Atmaramji M. has written—“A nirgranth Shraman (Jain ascetic) can in no way accept this condition from a layman that he should take the alms and share it with other seekers
आचारांग सूत्र (भाग २)
( ७२ )
Acharanga Sutra (Part 2)
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