Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 588
________________ (5) The fifth bhaavana is-A nirgranth is one who eats food only after careful inspection, one who eats unchecked food is not. The Kevali says-A nirgranth who eats unchecked food destroys beings, organisms, souls and entities; he covers them with dust (etc.), crushes them, injures them, compresses them and hurts them. Only he is a nirgranth who eats food after careful inspection; one who eats unchecked food is not. This is the fifth bhaavana. In this way the first great vow with its five bhaavanas is properly touched by the body (accepted), observed, accomplished, praised, established and practiced according to the precepts of Bhagavan. Bhante ! This is the first great vow called pranatipata viramana or abstaining from causing any injury to any being. ___ विवेचन–प्रथम महाव्रत की सम्यक् आराधना कैसे हो सकती है ? इसके लिए पाँच क्रम बताए हैं-(१) स्पर्शना, (२) पालना, (३) तीर्णता, (४) कीर्तना, और (५) अवस्थितता। सम्यक् श्रद्धा प्रतीतिपूर्वक महाव्रत का ग्रहण करना स्पर्शना है, ग्रहण के बाद उसका यथाशक्ति पालन करना, उसकी सुरक्षा करना पालना है। जो महाव्रत स्वीकार कर लिया है, उसे जीवन पर्यन्त पार लगाना, चाहे उसमें कितनी ही विघ्न-बाधाएँ, रुकावटें आयें, परन्तु कृत निश्चय से पीछे नहीं हटना, जीवन के अन्तिम श्वास तक उसका पालन करना तीर्ण होना है। तथा स्वीकृत महाव्रत का महत्त्व समझकर उसकी प्रशंसा करना, दूसरों को उसकी विशेषता समझाना कीर्तन करना है। कितने ही झंझावात आयें, भय या प्रलोभन आयें गृहीत महाव्रत में डटा रहे, विचलित न हो-यह अवस्थितता है। चूर्णिकार ने विवेचन करते हुए कहा है-आत्मा को उन प्रशस्त भावों से भावित करना भावना है। जैसे शिलाजीत के सात लोहरसायन की भावना दी जाती है, कोद्रव की विष के साथ भावना दी जाती है, इसी प्रकार ये भावनाएँ हैं। ये चारित्र भावनाएँ हैं। महाव्रतों के गुणों में वृद्धि करने हेतु ये भावनाएँ बताई गई हैं। इन भावनाओं के कारण प्रथम महाव्रत की शुद्ध आराधना सम्भव होती है। (आचारांग चूर्णि मू. पा. टि., पू. २७८) __प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएँ प्रस्तुत में संक्षेप में इस प्रकार हैं-(१) ईर्यासमिति से युक्त होना। ईर्या का अर्थ है-गमन करना। समिति का अर्थ है-सम्यक् रीति से, विवेक या सावधानीपूर्वक। चलते समय अपने शरीर प्रमाण भूमि को देखते हुए जीव-हिंसा से बचते हुए चलना ईर्यासमिति है। (२) मन को सम्यक् दिशा में प्रयुक्त करना, मन को पवित्र रखना। (३) भाषासमिति या वचनगुप्ति का पालन करना, निर्दोष भाषा का प्रयोग करना। (४) आदानभाण्डमात्र निक्षेपणासमिति का पालन करना। आदान-भाण्डमात्र निक्षेपणा का अर्थ है-वस्त्रपात्र आदि उपकरण लेने और रखने में सावधानी या विवेक रखना। (५) अवलोकन करके आहार-पानी करना। आचारांग सूत्र (भाग २) ( ५३० ) Acharanga Sutra (Part 2) aapR09009-809480949 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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