Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 625
________________ ४०८. जिस प्रकार सर्प अपनी जीर्ण त्वचा - - काँचुली को त्यागकर उससे मुक्त हो जाता है वैसे ही जो महाव्रतधारी माहन - भिक्षु परिज्ञा - परिज्ञान के समय - सिद्धान्त में प्रवृत्त रहता है। वह इहलोक-परलोक सम्बन्धी आशंसा से रहित है, मैथुन - सेवन से उपरत (विरत ) है तथा संयम में विचरण करता है, वह नरकादि दुःखशय्या या कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है ॥१॥ SHEDDING SKIN LIKE A SERPENT 408. As a serpent sheds its old skin and gets free of it, likewise the great ascetic who has accepted the great vows and pursues the study of fundamentals, is free of desires, has renounced carnality and observes discipline. He sheds the bonds of karma and is free of the miseries of hell ( etc.). (9) विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सर्प का दृष्टान्त देकर समझाया गया है कि सर्प जैसे अपनी पुरानी काँचुली छोड़कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसे ही जो मुनि ज्ञान - सिद्धान्त - परायण, निरपेक्ष, मैथुन परत एवं संयमाचारी है, वह पापकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली नरक - तिर्यंच आदि रूप दुःखशय्या से मुक्त हो जाता है। Elaboration-Giving the example of a serpent this aphorism explains that as a serpent sheds its old skin and gets free of it, likewise an ascetic who pursues the study of fundamentals; is free of desires and carnality and observes discipline is free of the bed of miseries that is a birth as hell-beings, animals (etc.). महासमुद्र का दृष्टान्त : कर्म अन्त करने की प्रेरणा ४०९. जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, महासमुहं व भुयाहिं दुत्तरं । अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चती ॥१०॥ ४०९. तीर्थंकर आदि ने कहा है- अपार सलिल-प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है, वैसे ही संसाररूपी महासमुद्र को भी पार करना दुस्तर है। अतः इस संसार समुद्र के स्वरूप को (ज्ञ-परिज्ञा से ) जानकर ( प्रत्याख्यान - परिज्ञा से ) उसका परित्याग कर दे। इस प्रकार का त्याग करने वाला पण्डित मुनि कर्मों का अन्त करने वाला होता है ॥१०॥ विमुक्ति : सोलहवाँ अध्ययन Jain Education International ( ५६५ ) For Private Personal Use Only Vimukti: Sixteenth Chapter www.jainelibrary.org

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