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विमुत्ती : सोलसं अज्झयणं विमुक्ति : सोलहवाँ अध्ययन
VIMUKTI: SIXTEENTH CHAPTER LIBERATION
अनित्य भावना
४०० अणिच्चमावासमुर्वेति जंतुणो, पलोयए सोच्चमिणं अणुत्तरं ।
विओसिरे विष्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं च ॥ १ ॥
४००. प्राणी मनुष्यादि जिन योनियों में जन्म लेते हैं अथवा जिन शरीर आदि में आत्माएँ आवास प्राप्त करती हैं, वे सब स्थान अनित्य हैं। सर्वश्रेष्ठ जिन प्रवचन में कथित यह वचन सुनकर उस पर अन्तर की गहराई से पर्यालोचन करे तथा समस्त भयों से मुक्त बना हुआ विवेकी पुरुष बन्धनों का व्युत्सर्ग कर दे एवं आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर दे ॥१॥
ANITYA BHAAVANA
400. All the places or yonis (genus into which living beings are born) where beings including humans live are transient or ephemeral. Hearing these words of Tirthankar one should meditate upon these profoundly. Getting free of all fears, that prudent person should renounce all mundane ties, sinful activities and possessions. (1)
विवेचन - मनुष्य आदि भव में निवास या उस उस शरीर में निवास अनित्य है अथवा सारा ही संसार अनित्य है। तात्पर्य यह है कि चारों गतियों में जिन-जिन योनियों में जीव उत्पन्न होते हैं, वे सब अनित्य हैं। इस अनुत्तर जिनवाणी को सुनकर विवेकशील पुरुष उस पर पूर्णतया पर्यालोचन करे कि भगवान का कथन यथार्थ है ।
" अभीरु आरम्भ - परिग्गहं चए" - अभीरु अर्थात् सात प्रकार के भयों से मुक्त एवं परीषहों और उपसर्गों से नहीं घबराने वाला साधु । आरम्भ - सावद्य कार्य, और परिग्रह - बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह अथवा परिग्रह के निमित्त किया जाने वाला आरम्भ छोड़े। आरम्भ और परिग्रह का त्याग
विमुक्ति : सोलहवाँ अध्ययन
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Vimukti: Sixteenth Chapter
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