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406. Avoiding the company of householders and followers of other religious schools, a bhikshu should pursue the path of ascetic discipline. He should renounce the company of women as well as desire for his worship and reverence by others. He should remain free of any aspirations for this and the other world. Aware of the bitter fruits of carnal indulgences, the wise ascetic should have apathy for pleasant sounds and other attributes of carnality. (7)
४०७. तहा विमुक्कस्स परिण्णचारिणो, धिइमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो ।
विसुज्झती जंसि मलं पुरकेडं, समीरियं रूप्पमलं व जोइणा ॥८ ॥
४०७. सर्वसंगविमुक्त, परिज्ञा - ( ज्ञानपूर्वक) आचरण करने वाले, धृतिमान - दुःखों को सम्यक् प्रकार से सहन करने में समर्थ, भिक्षु के पूर्वकृत कर्ममल उसी प्रकार विशुद्ध(क्षय) हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि द्वारा चाँदी का मैल अलग हो जाता है ॥८ ॥
407. The past-acquired dirt of karmas of a bhikshu who is free of all company, has sagacious conduct, and has capacity to correctly endure all misery, is cleansed in the same way as impurities of silver are removed by fire. (8)
विवेचन - इन पाँच गाथाओं में शास्त्रकार ने कर्ममल से विमुक्त होने की दिशा में साधु को क्या-क्या करना चाहिए इसकी प्रेरणा रजतमल-शुद्धि आदि दृष्टान्तों के द्वारा दी है। साधु के पाँच कर्त्तव्यों का निर्देश इस प्रकार किया गया है
(१) पृथ्वी की तरह सब कुछ सहने वाला मुनि त्रस -स्थावर जीवों की हिंसा से दूर रहे |
(२) क्षमादि दस धर्मों का पालन करने वाले तृष्णा मुक्त एवं धर्मध्यानी मुनि की तपस्या, प्रज्ञा एवं कीर्ति अग्निशिखा के तेज की तरह बढ़ती है, वही कर्ममुक्ति दिलाने में समर्थ है।
(३) महाव्रतरूपी सूर्य कर्मसमूह रूप अन्धकार को नष्ट करके आत्मा को त्रिलोक प्रकाशक बना देते हैं।
(४) कर्मों के पाश में बँधे लोगों - गृहस्थों के संसर्ग से तथा स्त्रीजन एवं इह-पर-लोक सम्बन्धी कामनाओं से भिक्षु दूर रहे।
(५) सर्वसंगमुक्त, परिज्ञाचारी - विवेकी, धृतिमान, दुःख -सहिष्णु भिक्षु के कर्ममल उसी तरह साफ हो जाते हैं, जिस तरह अग्नि से चाँदी का मैल साफ हो जाता है।
आचारांग सूत्र (भाग २)
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Acharanga Sutra (Part 2)
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