Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 621
________________ . . . . etc.) becomes free of desires and involves and absorbs himself in meditation (remains alert in observing the codes of conduct). The austerity, wisdom and glory of such ascetics continue to increase like the glow of a flame. (5) ४०५. दिसोदिसिंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपया पवेइया। महागुरु निस्सयरा उदीरिया, तमेव तेऊ तिदिसं पगासगा॥६॥ __ ४०५. षट्काय के रक्षक, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न राग-द्वेष विजेता, जिनेन्द्र भगवान ने सभी एकेन्द्रियादि भावदिशाओं में रहने वाले जीवों के लिए क्षेम (रक्षण) स्थान-महाव्रतों का प्रतिपादन किया है। अनादिकाल से बँधे कर्म-बन्धनों को दूर करने में समर्थ महान् गुरु ने इन महाव्रतों का निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज (सूर्य प्रकाश) तीनों दिशाओं 6 (ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यक्) के अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है, उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज भी अन्धकार रूप कर्मसमूह को नष्ट करके प्रकाश करने वाला बन जाता है॥६॥ 405. The Jinendra, protector of six life-forms, endowed with infinite knowledge (etc.), conqueror of attachment and aversion, has propagated the five great vows for the well-being of all lifeforms (at different levels of evolution of faculties including one sensed beings). The great guru, capable of destroying the bondage of all karmas, has formulated these great vows. As light (sunlight) illuminates all the three directions dispelling darkness, in the same way the light of great vows illuminates the soul by dispelling the darkness of accumulated karmas. (6) ___ ४०६. सिएहिं भिक्खू असिए परिव्वए, असज्जमित्थीसु चएज्ज पूयणं। अणिस्सिओ लोगमिणं तहा परं, ण मिज्जति कामगुणेहिं पंडिए॥७॥ ___४०६. भिक्षु कर्म या रागादि बन्धनकारक गृहपाश से बँधे हुए गृहस्थों या अन्यतीर्थिकों के साथ अबद्ध-संसर्गरहित होकर संयम में विचरण करे तथा स्त्रियों के संग का त्याग करके पूजा-सत्कार आदि की लालसा छोड़े। साथ ही वह इहलोक तथा परलोक में अनिश्रित-निस्पृह होकर रहे। कामभोगों के कटु विपाक को देखने वाला पण्डित मुनि * मनोज्ञ-शब्दादि काम-गुणों को स्वीकार न करे॥७॥ ॐ विमुक्ति : सोलहवाँ अध्ययन ( ५६१ ) Vimukti : Sixteenth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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