Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 619
________________ ४०२. तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिए, ससद्दफासा फरुसा उदीरिया। तितिक्खए नाणि अदुट्टचेयसा, गिरि व्व वारण ण संपवेयए॥३॥ ___४०२. असंस्कारी एवं असभ्य जनों द्वारा कहे गये आक्रोशयुक्त शब्दों तथा शीतोष्णादि स्पर्शों से पीड़ित ज्ञानवान भिक्षु प्रशान्त चित्त से उन्हें सहन करे। जिस प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, ठीक उसी प्रकार संयमशील मुनि भी इन परीषहोपसर्गों से विचलित नहीं होता है॥३॥ 402. A wise ascetic should peacefully endure these angry words and hot and cold blows by rustic and uncivilized people. As a mountain is not shaken even by tremendous force of winds, a disciplined ascetic is not shaken by such afflictions and torments. (3) विवेचन-'तहागयं भिक्खु वृत्ति एवं चूर्णिकार ने तथागत शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-“अनित्यत्वादि भावना से भावित गृहबन्धन से मुक्त, आरम्भ-परिग्रहत्यागी तथा अनन्तएकेन्द्रियादि प्राणियों पर सम्यक् प्रकार से संयमशील, अद्वितीय जिनागम रहस्यवेत्ता विद्वान् एवं एषणा से युक्त विशुद्ध आहारादि से जीवन निर्वाह करने वाला भिक्षु।" ___चूर्णिकार के अनुसार-तथागत का अर्थ है जिस मार्ग से, जिस गति से, तीर्थंकर, गणधर आदि गये हैं, उसी प्रकार जो गमन करता है, वह तथागत कहलाता है। अनन्त चारित्र-पर्यायों से युक्त अनन्त संयत हैं। __वृत्तिकार एवं चूर्णिकार के अनुसार-तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिते' की व्याख्या है-जैसे असंस्कारी, मन के काले, दरिद्र अनार्यप्रायः तथा प्रकार के बाल जनों के द्वारा निन्दा या व्यथित होने पर एवं परीषह दिये जाने पर भी भिक्षु पर्वत की भाँति अविचल रहता है। ___Elaboration-Tahagayam bhikkhu. ...-the word tathagat has been interpreted in the Vritti and Churni as-an ascetic inspired by anitya and other bhaavanas, free of mundane ties, sinful activities and possessions, perfectly disciplined and careful with regard to all beings, a great scholar of Agams, who lives on pure and acceptable alms. According to Churni tathagat means one who follows the path taken by Tirthankar, Ganadhar etc. A person endowed with infinite variations of right conduct and absolute discipline. विमुक्ति : सोलहवाँ अध्ययन ( ५५९ ) Vimukti : Sixteenth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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