________________
(५) पाँचवीं भावना इस प्रकार है - जो साधु साधर्मिकों से भी विचारपूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ है, बिना विचारे अवग्रह की याचना करने वाला नहीं । केवली भगवान का कथन है- बिना विचार किये जो साधर्मिकों से अवग्रह की याचना करता है, उसे साधर्मिकों का अदत्त ग्रहण करने का दोष लगता है। अतः जो साधु साधर्मिकों से भी विचारपूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वही निर्ग्रन्थ कहलाता है, बिना विचारे साधर्मिकों से अवग्रह याचना करने वाला नहीं । इस प्रकार की पंचम भावना है।
इस प्रकार अदत्तादान विरमण रूप तृतीय महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, उसका पालन करने, गृहीत महाव्रत को भलीभाँति पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा उसमें अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्यक् आराधना हो जाती है।
भगवन् ! यह अदत्तादान विरमण रूप तृतीय महाव्रत है ।
(5) The fifth bhaavana is — A nirgranth seeks limited alms after right contemplation even from co-religionists and not without it. The Kevali says-A nirgranth seeking limited alms from co-religionists without right contemplation commits fault of taking from co-religionists what is not given. Therefore a nirgranth is one who seeks limited alms prudently after right contemplation from co-religionist and not the one who seeks without thinking from them. This is the fifth bhaavana.
In this way the third great vow with its five bhaavanas is properly touched by the body (accepted), observed, accomplished, praised, established and practiced according to the precepts of Bhagavan.
Bhante! This is the third great vow called adattadan viraman or abstaining from taking what is not given.
विवेचन-यहाँ वर्णित पाँच भावनाओं के क्रम में तथा समवायांगसूत्र के क्रम में लगभग समान पाठ है। समवायांगसूत्र में इस महाव्रत की पंच भावनाओं का क्रम इस प्रकार है - ( 9 ) अवग्रह की बार-बार याचना करना, (२) अवग्रह की सीमा जानना, (३) स्वयं अवग्रह की बारबार याचना करना, (४) साधर्मिकों के अवग्रह का अनुज्ञा ग्रहणपूर्वक परिभोग करना, और ( ५ ) सर्वसाधारण आहार-पानी का गुरुजनों आदि की अनुज्ञा ग्रहण करके परिभोग करना। (समवायांग सम. २५)
आचारांग सूत्र (भाग २)
Jain Education International
( ५४० )
For Private Personal Use Only
Acharanga Sutra (Part 2)
www.jainelibrary.org