Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 596
________________ contemplation and not the one who seeks without thinking. This is the first bhaavana. (२) अहावरा दोच्चा भावणा-अणुन्नविय पाण-भोयणभोई से णिग्गंथे. णो अणणुन्नविय पाण-भोयणभोई। केवली बूया-अणणुनविय पाण-भोयणभोई से णिग्गंथे अदिण्णं भुंजेज्जा। तम्हा अणुनविय पाण-भोयणभोई से णिग्गंथे, णो अणणुनविय पाण-भोयणभोई त्ति दोच्चा भावणा। (२) दूसरी भावना यह है-गुरुजनों की आज्ञा लेकर आहार-पानी करने वाला निर्ग्रन्थ होता है, आज्ञा लिए बिना आहार-पानी आदि का उपभोग करने वाला नहीं। केवली भगवान कहते हैं जो निर्ग्रन्थ गुरु आदि की आज्ञा प्राप्त किये बिना पान-भोजनादि का उपभोग करता है, वह अदत्तादान का भोगने वाला है। इसलिए जो साधु गुरु आदि की आज्ञा प्राप्त करके आहार-पानी का उपभोग करता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, अनुज्ञा ग्रहण किये बिना आहार-पानी आदि का सेवन करने वाला नहीं। यह है-दूसरी भावना। (2) The second bhaavana is—A nirgranth eats food after getting permission from senior ascetics not otherwise. The Kevali says-A nirgranth who eats or drinks without getting permission from his seniors consumes what is not given to him. Only he is a nirgranth who eats and drinks after getting permission from his seniors, not the one who eats or drinks without permission. This is the second bhaavana. (३) अहावरा तच्चा भावणा-णिग्गंथे णं उग्गहसि उग्गहियंसि एत्तावताव उग्गहणसीलए सिया। केवली बूया-निग्गंथे णं उग्गहसि उग्गहियंसि एत्तावताव अणुग्गहणसीलो अदिण्णं आगिण्हेज्जा, निग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहियंसि एत्तावताव उग्गहणसीलए सियत्ति तच्चा भावणा। (३) तृतीय भावना का स्वरूप इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ साधु को क्षेत्र और काल के प्रमाणपूर्वक अवग्रह की याचना करनी चाहिए। केवली भगवान कहते हैं-जो निर्ग्रन्थ इतने क्षेत्र और इतने काल की मर्यादापूर्वक अवग्रह की याचना ग्रहण नहीं करता, वह अदत्त का ग्रहण करता है। अतः निर्ग्रन्थ साधु क्षेत्र, काल की मर्यादा खोलकर अवग्रह की आज्ञा ग्रहण करने वाला होता है, अन्यथा नहीं। यह तृतीय भावना है। आचारांग सूत्र (भाग २) ( ५३८ ) Acharanga Sutra (Part 2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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