Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

Previous | Next

Page 608
________________ .. ... . IMA531604590.50.24TAC HA P ANATASKC 'ADING . ........ ......... HMM C HAa .. . ... ... . . A NDI dhunninvitechnder .. ...... ....... " .. . .. attachment (etc. up to attachment and aversion), disturbs his serene conduct and serene celibacy, and falls from the serene code propagated by the Kevali. It is impossible to avoid smelling odours that have become subjects of the sense organ of smell (nose). However, a bhikshu should refrain from having attachment and aversion for the same. Therefore a nirgranth should not disturb his indulgence in the self by smelling pleasant and unpleasant odours and having attachment and aversion for the same. This is the third bhaavana. (४) अहावरा चउत्था भावणा-जिब्भाओ जीवो मणुन्नामणुण्णाइं रसाइं अस्साएइ, मणुन्नामणुण्णेहिं रसेहिं णो सज्जेज्जा णो रज्जेज्जा जाव णो विणिग्घायमावज्जेज्जा केवली बूया-निग्गंथे णं मणुन्नामणुण्णेहिं रसेहिं सज्जमाणे जाव विणिग्घायमावज्जमाणे संतिभेदा जाव भंसेज्जा। ण सक्का रसमणासाउ जीहाविसयमागयं। रोग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए॥४॥ जीहाओ जीवो मणुन्नामणुण्णेहिं रसाइं अस्साएइ त्ति चउत्था भावणा। (४) चौथी भावना का स्वरूप इस प्रकार है-जीव जिह्वा से मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों का आस्वादन करता है, किन्तु भिक्षु को चाहिए कि वह मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में न आसक्त हो न रागभावों से ग्रस्त हो और न उन पर राग-द्वेष करके अपने आत्म-भाव का घात करे। केवली भगवान का कथन है कि मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में आसक्ति या राग-द्वेष करके जीव अपनी शान्ति नष्ट कर देता है तथा केवलीभाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ऐसा तो नहीं हो सकता कि जिह्वा-प्रदेश में आये रस पुद्गलों का वह स्वाद नहीं ले; किन्तु उन रसों के प्रति भिक्षु राग-द्वेष का परित्याग करे॥४॥ जिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के रसों का आस्वादन करता है, किन्तु उनके प्रति राग-द्वेष करके अपने आत्म-भाव का विघात नहीं करना चाहिए। यह चौथी भावना है। आचारांग सूत्र (भाग २) ( ५५० ) Acharanga Sutra (Part 2) ROMONGOEM Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636