________________
T
r
n
...
..
.
.
..
.
.
A
T .....
N
(4) The fourth bhaavana is-This being with its sense organ of taste (tongue) tastes all types of pleasant and unpleasant flavours; however he should not have infatuation (etc. up to attachment and aversion). The Kevali says-A nirgranth having infatuation, attachment (etc. up to attachment and aversion), disturbs his serene conduct and serene celibacy, and falls from the serene code propagated by the Kevali.
It is impossible to avoid tasting flavours that have become subjects of the sense organ of tasting (tongue). However, a bhikshu should refrain from having attachment and aversion for the same.
Therefore a nirgranth should not disturb his indulgence in the self by tasting pleasant and unpleasant flavours and having attachment and aversion for the same. This is the fourth bhaavana.
(५) अहावरा पंचमा भावणा-फासाओ जीवो मणुनामणुण्णाई फासाइं पडिसंवेदेति, मणुन्नामणुण्णेहिं फासेहिं णो सज्जेजा, जाव णो विणिघायमावज्जेज्जा। केवली बूया
निग्गंथे णं मणुनामणुण्णेहिं फासेहिं सज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया 5संतिविभंगा संतिकेवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा।
न सक्का फासमवेउं फासविसयमागयं।
राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए॥५॥ फासाओ जीवो मणुनामणुण्णाइं फासाइं पडिसंवेदेति त्ति पंचमा भावणा।
एत्तावताव पंचमे महव्वए सम्मं कारणं फासिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्टिए आणाए आराहिए यावि भवति। ___ पंचमं भंते ! महव्वयं परिग्गहाओ वेरमणं।
(५) पंचम भावना इस प्रकार है-स्पर्शनेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों का अनुभव करता है, किन्तु भिक्षु उन मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों में न आसक्त हो, न आरक्त हो,
और न ही उनमें राग-द्वेष करके अपने आत्म-भाव का नाश करे। केवली भगवान कहते हैं-जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर आसक्त हो जाता है वह आत्म-भाव का विधात कर बैठता है, वह शान्ति को नष्ट कर डालता है तथा केवली प्ररूपित शान्तिमय धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन
( ५५१ )
Bhaavana : Fifteenth Chapter
YO
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org