Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

Previous | Next

Page 606
________________ sak: Therefore a nirgranth should not disturb his indulgence in the self by hearing pleasant and unpleasant sounds and having attachment and aversion for the same. This is the first bhaavana. (२) अहावरा दोच्चा भावणा-चक्खूओ जीवो मणुनामणुण्णाई रूवाइं पासइ, * मणुनामणुण्णेहिं रूवेहिं सज्जमाणे रज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेदा संतिविभंगा जाव भंसेज्जा। न सक्का रूवमदटुं चक्खूविसयमागयं। राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए॥२॥ चक्खूओ जीवो मणुनामणुण्णाई रूवाई पासइ त्ति दोच्चा भावणा। (२) अब द्वितीय भावना का स्वरूप इस प्रकार है-चक्षु से जीव प्रिय-अप्रिय सभी प्रकार के रूपों को देखता है, किन्तु साधु प्रिय-अप्रिय रूपों में न आसक्त हो, यावत् न राग-द्वेष करके अपने आत्म-भाव को नष्ट करे। केवली भगवान कहते हैं-जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों को देखकर राग-द्वेष करके अपने आत्म-भाव को खो बैठता है, वह शान्तिरूप चारित्र को विनष्ट करता है, शान्ति-भंग कर देता है, तथा शान्तिरूपकेवली-प्ररूपति धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। नेत्रों का विषय बने हुए रूप को नहीं देखना तो शक्य नहीं है, वे दीख ही जाते हैं, किन्तु देखने पर मन में जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्षु उनमें राग-द्वेष का भाव उत्पन्न न होने दे॥२॥ इस प्रकार चक्षु के द्वारा मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों को देखकर उनमें आसक्त होकर आत्म-भाव का विघात न करे। यह दूसरी भावना है। (2) The second bhaavana is—This being with its sense organ of seeing (eyes) sees all types of pleasant and unpleasant forms; however he should not have infatuation (etc. up to attachment and aversion). The Kevali says-A nirgranth having infatuation, attachment (etc. up to attachment and aversion), disturbs his serene conduct and serene celibacy, and falls from the serene code propagated by the Kevali. आचारांग सूत्र (भाग २) ( ५४८ ) Acharanga Sutra (Part 2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636