Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 597
________________ (3) The third bhaavana is-A nirgranth seeks alms after fixing the limits of area and time. The Kevali says-A nirgranth who seeks alms without defining specific limits of area and time commits the fault of taking what is not given. Only he is a nirgranth who takes permission for seeking alms only after specifying the limits of area and time, not the one who does otherwise. This is the third bhaavana. म (४) अहावरा चउत्था भावणा-निग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं २ उग्गहसीलए सिया । केवली बूया - णिग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं २ अणुग्गहणसीले अदिण्णं गिण्हेज्जा । निग्गंथे उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं २ उग्गहसीलए सियत्ति चउत्था भावणा । (४) चौथी भावना यह है - निर्ग्रन्थ अवग्रह की आज्ञा ग्रहण करने के पश्चात् बार-बार अवग्रह आज्ञा - ग्रहणशील होना चाहिए। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं - जो निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर बार-बार अवग्रह की अनुज्ञा नहीं लेता, वह अदत्तादान दोष का भागी होता है। अतः निर्ग्रन्थ को एक बार अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर भी पुनः पुनः अवग्रहाज्ञा ग्रहणशील होना चाहिए। यह चौथी भावना है। (4) The fourth bhaavana is-A nirgranth takes permission to go for alms-seeking once and many times (whenever needed). The Kevali says-A nirgranth who does not take permission every time after taking it once, commits the fault of taking what is not given. Therefore a nirgranth should take permission again and again (every time) before going for alms-seeking even after securing permission once. This is the fourth bhaavana. (५) अहावरा पंचमा भावणा - अणुवीय मिउग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएस, णो अणुवीय मिउग्गहजाई । केवली बूया - अणणुवीइ मिउग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु अदिण्णं ओगिण्हेज्जा। से अणुवीयि मिउग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु, णो अणुवीय मिउग्गजाइ त्ति पंचमा भावणा । एत्तावताव तच्चे महव्वए सम्मं जाव आणाए आराहिए यावि भव । तच्चं भंते ! महव्वयं । भावना: पन्द्रहवाँ अध्ययन Jain Education International ( ५३९ ) For Private Personal Use Only Bhaavana: Fifteenth Chapter www.jainelibrary.org

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