Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 593
________________ ... .. . AU.NAV..0200. 4-0ती कीर्तन करने एवं उसमें अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है। हे भगवन् ! यह मृषावाद विरमण रूप द्वितीय महाव्रत है। (5) The fifth bhaavana is-A nirgranth knows about the bitter consequences of frivolity and avoids it. The Kevali says—When frivolous, a person thoughtlessly tells a lie out of frivolity. Only he is a nirgranth who is free of frivolity, not the one who is frivolous. This is the fifth bhaavana. In this way the second great vow with its five bhaavanas is properly touched by the body (accepted), observed, accomplished, praised, established and practiced according to the precepts of Bhagavan. Bhante ! This is the second great vow called mrishavadaviraman or abstaining from falsity. विवेचन-वृत्तिकार ने अणुवीइभासी का अर्थ किया है-जो कुछ बोलना है या जिसके सम्बन्ध में कुछ कहना है, पहले उसके सन्दर्भ में उसके अनुरूप विचार करके बोलना। बिना सोच-विचारे यों ही सहसा कुछ बोल देने या किसी विषय में कुछ कह देने से अनेक अनर्थों की सम्भावना है। बोलने से पूर्व उसके इष्ट-अनिष्ट, हानि-लाभ, हिताहित परिणाम का भलीभाँति विचार करना आवश्यक है। चूर्णिकार 'अणुवीयिभासी' का अर्थ करते हैं-"पुव्वं बुद्धीए पासित्ता।" अर्थात् पहले अपनी निर्मल व तटस्थ बुद्धि से निरीक्षण करके फिर बोलने वाला। तत्त्वार्थसूत्रकार , अनुवीचीभाषण का अर्थ करते हैं-निरवद्य- निर्दोष भाषण। क्रोधान्ध, लोभान्ध और भयभीत व्यक्ति भी आवेश में आकर कुछ का कुछ अथवा लक्ष्य से विपरीत कह देता है। अतः ऐसा करने से असत्य दोष की सम्भावना रहती है। हँसी-मजाक में मनुष्य प्रायः असत्य बोल जाया करता है। वैसे भी किसी की हँसी उड़ाना, कलह, परिताप, असत्य, क्लेश आदि अनेक अनर्थों का कारण हो जाता है। चूर्णिकार कहते हैं-क्रोध में व्यक्ति पुत्र को अपुत्र कह देता है, लोभी भी कार्य-अकार्य का अनभिज्ञ होकर मिथ्या बोल देता है, भयभीत भी भयवश अचोर को चोर कह देता है। (क) आचारांग वृत्ति, पत्रांक ४२८, (ख) आचारांग चूर्णि मू. पा. टि., पृ. २८३, (ग) तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि, टीका ७/४/ Elaboration—In Vritti the phrase anuviyibhasi is interpreted asOne who carefully ponders over the thing or the subject before speaking anything or on any subject. Speaking suddenly without thinking or commenting on something entails numerous grave भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन ( ५३५ ) Bhaavana : Fifteenth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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