Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 587
________________ ... . 47.4. 4.40der (४) तदनन्तर चौथी भावना इस प्रकार है-जो आदान-भाण्डमात्र निक्षेपणासमिति से । यक्त है. वह निर्ग्रन्थ है। केवली भगवान कहते हैं-जो निर्ग्रन्थ आदान-भाण्डमात्र निक्षेपणासमिति से रहित है, वह प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का अभिघात करता है, उन्हें आच्छादित कर देता है-दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है या पीड़ा पहुँचाता है। इसलिए जो आदान-भाण्डमात्र निक्षेपणासमिति से युक्त है, वही निर्ग्रन्थ है, जो आदान भाण्डमात्र निक्षेपणासमिति से रहित है, वह नहीं। यह चतुर्थ भावना है। ___ (4) The fourth bhaavana is-A nirgranth possesses an attitude of taking proper care while accepting and keeping ascetic equipment such as clothes and pots. The Kevali says-A nirgranth without such attitude destroys beings, organisms, souls and entities; he covers them with dust (etc.), crushes them, injures them, compresses them and hurts them. Only he is a nirgranth who possesses the attitude of taking proper care while accepting and keeping ascetic equipment such as clothes and pots; one who is devoid of it is not. This is the fourth bhaavana. (५) अहावरा पंचमा भावणा-आलोइयपाण-भोयणभोई से णिग्गंथे, णो * अणालोइयपाण भोयणभोई। केवली बूया-अणालोइयपाण-भोयणभोई से णिग्गंथे पाणाणि वा भूयाणि वा जीवाणि वा सत्ताणि वा अभिहणेज्ज वा जाव उद्दवेज्ज वा। तम्हा .. आलोइयपाण-भोयणभोई से णिग्गंथे, णो अणालोइयपाण-भोयणभोई त्ति पंचमा भावणा। एत्ताव ताव महव्वए सम्मं काएण फासिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ। पढमे भंते ! महव्वए पाणाइवाआओ वेरमणं। (५) इसके पश्चात् पाँचवीं भावना यह है-जो साधक आलोकित (देखभालकर) पान-भोजन-भोजी होता है, वह निर्ग्रन्थ होता है, अनालोकित-पान-भोजन-भोजी नहीं। केवली भगवान कहते हैं-जो बिना देखेभाले ही आहार-पानी का सेवन करता है, वह निर्ग्रन्थ प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का हनन करता है यावत् उन्हें पीड़ा पहुँचाता है। अतः जो देखभालकर आहार-पानी का सेवन करता है, वही निर्ग्रन्थ है, बिना देखेभाले आहार-पानी करने वाला नहीं। यह पंचम ‘भावना' है। इस प्रकार पाँच भावनाओं से युक्त प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम महाव्रत का भलीभाँति काया से स्पर्शना (स्वीकार) करने पर, उसका पालन करने पर, संपन्न करने पर, कीर्तन करने पर, अवस्थित करने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है। __ हे भगवन् ! यह प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम महाव्रत है। * भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन Bhaavana : Fifteenth Chapter ( ५२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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