Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

Previous | Next

Page 585
________________ ३९०. उस प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार होती हैं (१) उसमें पहली भावना यह है - निर्ग्रन्थ ईर्यासमिति से युक्त होता है ईर्यासमिति से रहित नहीं। केवली भगवान कहते हैं - ईर्यासमिति से रहित निर्ग्रन्थ प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन करता है, धूल आदि से ढकता है, दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है या पीड़ित करता है। इसलिए निर्ग्रन्थ ईर्यासमिति से युक्त होकर रहे, ईर्यासमिति से रहित होकर नहीं । यह प्रथम भावना है। FIVE BHAAVANAS 390. The five bhaavanas (attitudes) of that first vow are as follows (1) The first bhaavana is-A nirgranth observes irya samiti (the attitude of moving carefully) and is not without it. The Kevali says--a nirgranth without irya samiti destroys beings, organisms, souls and entities; he covers them with dust (etc.), crushes them, injures them, compresses them and hurts them. Therefore a nirgranth should live with irya samiti and not without it. This is the first bhaavana. (२) अहावरा दोच्चा भावणा मणं परियाणइ से णिग्गंथे । जे य मणे पावए सावज्जे सकिरिए अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे अहिकरणिए पाउसिए पारियाविए पाणाइवाइए भूओवघाइए तहप्पगारं मणं णो पधारेज्जा गमणाए । मणं परिजाणइ से णिग्गंथे, जे य मणे अपावत्ति दोच्चा भावणा । (२) इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है - मन को जो अच्छी प्रकार जानकर पापों से विरत करता है। जो मन पापयुक्त है, सावद्य है, क्रियाओं से युक्त है, कर्मों का आम्रवकारक है, छेदन-भेदनकारी है, क्लेश-द्वेषकारी है, परितापकारी है। प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघात करने वाला है। साधु इस प्रकार के मन ( मानसिक विचारों) को धारण ( ग्रहण) न करे। जो मन को भलीभाँति जानकर पापकारी विचारों से दूर रखता है, वही निर्ग्रन्थ है। जिसका मन पापों से रहित है । ( वह निर्ग्रन्थ है ) यह द्वितीय भावना है। (2) The second bhaavana is-A nirgranth knows his mind well and frees it of sins. A nirgranth should not have a mind भावना: पन्द्रहवाँ अध्ययन ( ५२७ ) Bhaavana: Fifteenth Chapter Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636