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प्रथम महाव्रत
३८९. पढमं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं पाणाइवायं। से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा णेव सयं पाणाइवायं करेज्जा ३ जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं । मणसा वयसा कायसा। तस्स भंते ! पडिक्कमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं योसिरामि। ___३८९. (प्रथम महाव्रत के विषय में मुनि-प्रतिज्ञा ग्रहण करता है) "भंते ! मैं प्रथम महाव्रत में सम्पूर्ण प्राणातिपात (हिंसा) का प्रत्याख्यान करता हूँ। मैं सूक्ष्म-स्थूल और त्रस-स्थावर समस्त जीवों का न तो स्वयं प्राणातिपात करूँगा, न दूसरों से कराऊँगा और न प्राणातिपात करने वालों का अनुमोदन करूँगा; इस प्रकार मैं यावज्जीवन तीन करण (करना, कराना, अनुमोदना) से एवं मन-वचन-काया-तीन योगों से इस पाप से निवृत्त होता हूँ। हे भगवन् ! मैं उन पूर्वकृत पापों का प्रतिक्रमण करता हूँ, (आत्म-साक्षी से-) निन्दा करता हूँ और (गुरु साक्षी से-) गर्दा करता हूँ; अपनी आत्मा से पाप का व्युत्सर्ग (पृथक्करण) करता हूँ।" FIRST GREAT VOW
389. (An ascetic resolves to accept the first great vow saying-) “Bhante ! I hereby completely abstain from causing any injury to any or all living beings. I will never cause injury to any minute or gross, mobile or immobile, living beings; neither will I induce others to do so, or approve of others doing so. I will observe this great vow through three means (mind, speech and body) and three methods (doing, inducing and approving). Bhante ! I critically review any such injury done in the past denounce it (considering soul as my witness), censure it (considering my guru as my witness) and earnestly desist from indulging in it (and expel this sin from my soul).
विवेचन-स्थूल दृष्टि से केवल हनन करना ही हिंसा समझा जाता है, इसीलिए सूक्ष्म चिन्तन के साथ शास्त्रकार ने यहाँ 'प्राणातिपात' शब्द मूल पाठ में रखा है। 'प्राणातिपात' का अर्थ है प्राणों का अतिपात-नाश करना। प्राण का अर्थ केवल श्वासोच्छ्वास या प्राण-अपानादि पंचप्राण ही नहीं है, अपितु पाँच इन्द्रिय, तीन मन-वचन-कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयुबल, यों दस प्राणों में से किसी भी एक या अधिक प्राणों का नाश करना, उनको पीड़ा पहुँचाना प्राणातिपात हो जाता है। स्थूल दृष्टि वाले लोग स्थूल आँखों से दिखाई देने वाले (त्रस) चलते-फिरते जीवों भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन
( ५२५ ) Bhaavana : Fifteenth Chapter
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