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उच्चार-पसावण सत्तिक्कयं : दसमं अज्झयण उच्चार-प्रवण सप्तिका : दशम अध्ययन : तृतीय सप्तिका UCHCHAR-PRASRAVAN SAPTIKA : TENTH CHAPTER : SEPTET THREE
DEFECATION-URINATION SEPTET
उच्चार-प्रसवण-विवेक __२९१. से भिक्खू वा २ उच्चार-पासवणकिरियाए उब्बाहिज्जमाणे सयस्सपादपुंछणस्स असइए तओ पच्छा साहम्मियं जाइज्जा।
२९१. साधु-साध्वी को मल-मूत्र की प्रबल बाधा होने पर अपने मात्रक पात्र में उससे निवृत्ति करें। यदि अपना पादपुञ्छनक (मात्रक) उपलब्ध न हो तो साधर्मिक साधु से उसकी याचना करे (और मल-मूत्र विसर्जन क्रिया से निवृत्त हो)। PRUDENCE OF DEFECATION-URINATION
291. When a bhikshu or bhikshuni has great bodily urge to defecate or urinate he should relieve himself in his stool-pot. If his own duster (or pot) is not available he should beg for it from another co-religionist ascetic (and relieve himself).
विवेचनप्रस्तुत सूत्र में मल-मूत्र की हाजत हो जाने पर उसे रोकने के निषेध का संकेत किया है। हाजत होते ही वह तुरन्त अपना मात्रक-पात्र लेकर क्रिया से निवृत्त हो जाए, यदि वह समय पर नहीं मिले तो यथाशीघ्र साधर्मिक साधु से माँगे और उक्त क्रिया से शीघ्र निवृत्त हो जाए। वृत्तिकार इस सूत्र का आशय स्पष्ट करते हैं-मल-मूत्र के आवेग को रोकना नहीं चाहिए। मल के आवेग को रोकने से व्यक्ति जीवन से भी हाथ धो बैठता है और मूत्र बाधा रोकने से चक्षु पीड़ा हो जाती है। जैसा कि दशवै., अ. ५, उ. १, गा. ११ की जिनदासचूर्णि, पृ. १७५ पर कहा है-मुत्तनिरोधे चक्खुबाधाओ भवति, वच्चनिरोहे य जीवियमवि रुंधेज्जा। तम्हा वच्चमुत्तनिरोधो न कायव्यो।' आचारांग चूर्णि मू. पा. टि., पृ. २३१ में बताया है-'खुड्डागसन्निरुद्धे -पवडणादि दोसाशंकाओं को रोकने से प्रपतनादि दोष-गिर जाने आदि का खतरा होता है।
Elaboration–This aphorism censures avoiding or stopping the urge to defecate or urinate. When an ascetic has the urge he should at once relieve himself using his pot. If his own pot is not at hand he should
उच्चार-प्रस्त्रवण-सप्तिका: दशम अध्ययन
(
४०९ ) Uchchar-Prasravan Saptika : Tenth Chapter
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