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उच्चार-प्रसवण- सप्तिका : दशम अध्ययन
आमुख
दसवें अध्ययन का नाम ' उच्चार - प्रस्रवण- सप्तिका' है।
'उच्चार' का शाब्दिक अर्थ है - शरीर से जो प्रबल वेग के साथ च्युत होता - निकलता है। म या विष्ठा का नाम उच्चार है। प्रस्रवण का शब्दार्थ है - प्रकर्ष रूप से जो शरीर से बहता है, झरता है। प्रवण - (पेशाब) मूत्र या लघु-शंका को कहते हैं ।
उच्चार और प्रस्रवण ये दोनों शारीरिक क्रियाएँ हैं, इनका विसर्जन करना अनिवार्य है। अगर हाजत होने पर इनका विसर्जन न किया जाये तो अनेक प्रकार की भयंकर व्याधियाँ उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है।
मल और मूत्र दोनों दुर्गन्धयुक्त वस्तुएँ हैं, इन्हें जहाँ-तहाँ डालने से जनता के स्वास्थ्य को हानि पहुँचेगी, जीव-जन्तुओं की विराधना होगी, लोगों को साधुओं के प्रति घृणा होगी। इसलिए मल-मूत्र विसर्जन या परिष्ठापन कहाँ, कैसे और किस विधि से किया जाए, कैसे न किया जाए ? इन सब बातों का सम्यक् विवेक साधु को होना चाहिए । इसीलिए ज्ञानी एवं अनुभवी अध्यात्म पुरुषों ने इस अध्ययन की योजना की है ।
उच्चार-प्रस्रवण का कहाँ और कैसे विसर्जन या परिष्ठानपन करना चाहिए। जिससे महाव्रतों एवं समितियों में अतिचार - दोष नहीं लगे, उसका विधि निषेध - सात मुख्य सूत्रों द्वारा बताने के कारण इस अध्ययन का नाम उच्चार-प्रस्रवण - सप्तिका रखा गया है। ( आचारांग नियुक्ति, गा. ३२१-३२२)
उच्चार-प्रस्रवण- सप्तिका : दशम अध्ययन
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( ४०७ ) Uchchar Prasravan Saptika : Tenth Chapter
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