Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 559
________________ सणियं २ पुरत्थाभिमुहं णिसीयवेत्ता, सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं अब्भंगे । अब्भंगेत्ता गंधकासाएहिं उल्लोले । उल्लोलेत्ता सुद्धोदएणं मज्जावेइ, २ (त्ता) जस्स य मुल्लं सयसहस्सेणं तिपडोलतित्तिएणं साहिएण सीएण गोसीसरत्तचंदणेणं अणुलिंपइ, २ (त्ता ) ईसिं णिस्सासवातवोज्झं वरणगर-पट्टणुग्गयं कुसलणरपसंसियं अस्सलालापेलयं छेयायरिय-कणगखइयंतकम्मं हंसलक्खणं पट्टजुयलं णियंसावेइ, २ (त्ता) हारं अद्धहारं उरत्थं एगावलिं पालंबसुत्त पट्ट - मउड - रयणमालाई आविंधावेइ । आविंधावेत्ता गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं मल्लेणं कप्परुक्खमिव समालंकरेइ । समालंकरेत्ता दोच्चं सि महया वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणति, २ (त्ता ) एगं महं चंदप्पभं सिवियं सहस्सवाहिणियं विउव्वति । तं जहा - ईहामिय-उसभ-तुरग-परमकर-विहग- वाणर-कुंजर रुरु-सरभ-चमर-सद्दूल-सीह-वणलय-चित्तलयविज्जाहरमिहुणजुगलजंतजोगजुत्तं अच्चीसहस्स मालिणीयं सुणिरूवियं मिसमिसेंतरूवगसहस्सकलियं इसिं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेस्सं मुत्ताहलमुत्तजालंतरोवियं तवणीयपवरलंबूसग - पलंबंमुत्तदामं हारद्धहारभूसणसमो णयं अहियपेच्छणिज्जं पउमलयभत्तिचित्तं असोगलयभत्तिचित्तं कुंदलयभत्तिचित्तं णाणालयभत्तिविरइयं सुभं चारुकंतरूवं णाणामणिपंचवण्ण-घंटापडायपरिमंडियग्गसिहरं सुभं चारुकंतरूवं पासाइयं दरिसणीज्जं सुरूवं । ३६६. तत्पश्चात् देवों के इन्द्र देवराज शक्र धीरे-धीरे अपने विमान को वहाँ ठहराता है । फिर धीरे-धीरे विमान से उतरता है। विमान से उतरते ही देवेन्द्र सीधा एक ओर एकान्त में चला जाता है । वहाँ जाकर एक महान् वैक्रिय समुद्घात ( जड़ पुद्गलों को इच्छित आकार देने की एक विशेष क्रिया । विस्तार के लिए देखें सचित्र कल्पसूत्र, सूत्र २६) करता है। महान् वैक्रिय समुद्घात करके अनेक मणि-स्वर्ण-रत्न आदि से जटित - चित्रित, शुभ, सुन्दर, मनोहर, कमनीय रूप वाले एक बहुत बड़े देवच्छंदक ( जिनेन्द्र भगवान के लिए बैठने का स्थान) का विक्रिया द्वारा निर्माण करता है । उस देवच्छंदक के मध्य भाग में पादपीठ सहित एक विशाल सिंहासन की विक्रिया करता है, जो नाना मणि-स्वर्ण - रत्न आदि की रचना से चित्र-विचित्र, शुभ, सुन्दर और रम्य रूप वाला था। उस भव्य सिंहासन का निर्माण करके जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ वह आता है, आकर उसने भगवान की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन - नमस्कार करके श्रमण भगवान महावीर को लेकर वह देवच्छंदक के पास आता है। तत्पश्चात् भगवान को धीरे-धीरे उस देवच्छंदक में स्थित सिंहासन पर बिठाता है। उनका मुख पूर्व दिशा की ओर रहता है। भावना: पन्द्रहवाँ अध्ययन Jain Education International ( ५०५ ) For Private Personal Use Only Bhaavana: Fifteenth Chapter www.jainelibrary.org

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