Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

Previous | Next

Page 573
________________ knowledge called Manah-paryav-jnana with the help of which he gained direct awareness of the thoughts of all sentient five sensed beings existing in Adhai Dveep and two seas (a specific area of Jain cosmos). As soon as he got initiated, Shraman Bhagavan Mahavir dispersed all his friends, kinfolk, relatives and family members from there. Bidding them farewell he took this resolve—“Since this day I abandon all my fondness for my body for a period of twelve years. During this period I will endure all the afflictions caused by gods, human beings and animals properly and peacefully with equanimity and forgiveness.” विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में मुख्ययता दो बातों का उल्लेख किया गया है-भगवान को दीक्षा लेते ही मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि और १२ वर्ष तक अपने शरीर के प्रति ममत्व विसर्जन का अभिग्रह। दीक्षा अंगीकार करते ही भगवान एकाकी पर-सहाय से मुक्त होकर सामायिक साधना की दृष्टि से अपने आपको कसना चाहते थे, इसलिए उन्होंने गृहस्थ पक्ष के सभी स्वजनों को तुरन्त विदा कर दिया। स्वयं एकाकी, निःस्पृह, पाणिपात्र एवं निरपेक्ष होकर विचरण करने हेतु देह के प्रति ममत्व त्यागा और आने वाले उपसर्गों को समभाव से सहने का संकल्प कर लिया। _ 'वोसट्ठकाए' एवं 'चियत्तदेहे' ये दोनों समानार्थक-से दो पदों का प्रयोग इस सूत्र में हुआ है, परन्तु गहराई से देखा जाए तो इन दोनों के अर्थ में अन्तर है। वोसट्टकाए का संस्कृत रूपान्तर होता है-व्युत्सृष्टकाय--इसके मुख्य तीन अर्थ किये जाते हैं-(१) देह को परित्यक्त कर देना, (२) परिष्काररहित रखना, या (३) कायोत्सर्ग में स्थित रहना। पहला अर्थ यहाँ ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि चियत्तदेहे (त्यक्तदेहः) का भी वही अर्थ होता है। अतः 'वोसट्ठकाए' के पिछले दो अर्थ ही यहाँ सार्थक प्रतीत होते हैं। शरीर को परिष्कार करने का अर्थ है-शरीर को साफ करना, नहलाना-धुलाना, तैलादि मर्दन करना या चंदनादि लेप करना, वस्त्राभूषण से सुसज्जित करना या सरस-स्वादिष्ट आहार आदि से शरीर को पुष्ट करना, औषधि आदि लेकर शरीर को स्वस्थ रखने का उपाय करना आदि। इस प्रकार शरीर का परिकर्म-परिष्कार न करना तथा काया का मन से उत्सर्ग करके एक मात्र आत्म-गुणों में लीन रहना ही कायोत्सर्गस्थित रहना है। _ 'चियत्तदेहे' का जो अर्थ किया गया है, उसका भावार्थ है-शरीर के प्रति ममत्व या आसक्ति का त्याग करना। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर को उपसर्गादि से बचाने, उसे पुष्ट व स्वस्थ रखने का कारण तो ममत्व है या 'मेरा शरीर' यह जो देहाध्यास है, उसका त्याग करना। शरीर का मोह व शरीर-सम्बन्धी आकांक्षा का त्याग कर देना। ___ 'सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि अहियासइस्सामि' इन तीनों पदों के अर्थ में अन्तर है। सहिस्सामि का अर्थ है-सहन करूँगा; उपसर्ग आने पर न ही निमित्तों को कोलूँगा, न आर्तध्यान करूँगा। सम्यक् प्रकार से या समभावपूर्वक सहन कर लूँगा। खमिस्सामि का अर्थ है-जो कोई भी मुझ पर उपसर्ग करने आयेगा, उसके प्रति क्षमाभाव रलूँगा। किसी प्रकार द्वेष या वैर नहीं रदूंगा। भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन ( ५१७ ) Bhaavana : Fifteenth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636