Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 572
________________ ३८०. पडिवज्जित्तु चरित्तं अहोणिसं सव्वपाणभूयहियं। साहटुलोमपुलया पयता देवा निसामेंति॥१९॥ ३८0. भगवान चारित्र अंगीकार करके अहर्निश समस्त प्राणियों और भूतों के हित में संलग्न हो गये। सभी देवों ने जब यह सुना तो हर्ष से पुलकित हो उठे। 380. After accepting the ascetic-conduct Bhagavan got involved in the well being of all beings and life-forms every moment. All the gods were exhilarated when they heard this. मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि और अभिग्रह-ग्रहण ३८१. तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवणाणे णाम णाणे समुप्पण्णे। अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहिं य समुद्देहिं सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाइं जाणइ। __ तओ णं समणे भगवं महावीरे पव्वइए समाणे मित्त-णाइ-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति। पडिविसज्जित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हति-“बारस वासाई वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केई उवसग्गा समुप्पज्जति, तं जहा-दिव्वा वा माणुसा वा तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे सम्मं सहिस्सामि, खमिस्सामि, अहियासइस्सामि। ३८१. श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान नामक ज्ञान समुत्पन्न हुआ; जिसके द्वारा वे अढाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय, व्यक्त मन वाले जीवों के मनोगत भावों को प्रत्यक्ष जानने लगे। श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होते ही अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन-सम्बन्धी वर्ग को वहाँ से विसर्जित कर दिया। विदा करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया कि “मैं आज से बारह वर्ष तक अपने शरीर का व्युत्सर्ग करता हूँ-देह के प्रति ममत्वभाव का त्याग करता हूँ। इस अवधि में देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यंच-सम्बन्धी जो कोई भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन सभी उपसर्गों को मैं सम्यक् प्रकार से तथा समभावपूर्वक सहन करूँगा, क्षमाभाव रखूगा, शान्ति से झेलूँगा।" - one ATTAINING MANAH-PARYAVA-JNANA 381. As soon as Shraman Bhagavan Mahavir accepted the Kshayopashamik (leading to extinction-cum-pacification of karmas) equanimous conduct he was endowed with the आचारांग सूत्र (भाग २) ( ५१६ ) Acharanga Sutra (Part 2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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