Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 569
________________ KAHR ३७७. तत-विततं घण-झुसिरं आतोज्जं चउविहं बहुविहीयं। वाएंति तत्थ देवा बहूहिं आणट्टगसएहिं॥१७॥ ३७७. वहीं पर देवगण विभिन्न प्रकार के नृत्यों और नाट्यों के साथ अनेक तरह के तत, वितत, घन और शुषिर, यों चार प्रकार के बाजे बजा रहे थे।॥१७॥ 377. The gods were performing a variety of dances and dramas and playing four types of musical instruments namely tat, vitat, ghan and shushir (refer to Tenth Chapter). (17) ____३७८. तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वएणं दिवसेणं, विजएणं मुहुत्तेणं, हत्थुत्तरनक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए, विइयाए पोरुसीए, छद्रेणं भत्तेणं अपाणएणं, एगं साडगमायाए चंदप्पभाए सिबियाए सहस्सवाहिणीयाए सदेव-मणुया-ऽसुराए परिसाए समण्णिज्जमाणे २ उत्तरखत्तियकुंडपुरसंणिवेसस्स मझमझेणं निग्गच्छति, २ (ता) जेणेव णायसंडे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, २ (त्ता) ईसिं रयणिप्पमाणं अच्छोप्पेणं भूमिभागेणं सणियं २ चंदप्पभं सिबियं सहस्सवाहिणिं ठवेति। सणियं २ जाव ठवेत्ता सणियं २ चंदप्पभाओ सिबियाओ सहस्सवाहिणीओ पच्चोयरइ, २ (ता) सणियं २ पुरत्थाभिमुहे सीहासणे णिसीयति, २ (ता) आभरणालंकारं ओमुयति। तओ णं वेसमणे देवे जन्नुपायपडिए समणस्स भगवओ महावीरस्स हंसलक्खणेणं पडेणं आभरणालंकारं पडिच्छइ। ___ तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणे दाहिणं वामेण वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेइ। तओ णं सक्के देविंदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स जन्नुपायपडिए वइरामएणं थालेणं केसाइं पडिच्छइ, २ (त्ता) 'अणुजाणेसि भंते !' ति कटु खीरोदं सागरं साहरइ। ___ तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणेण दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ, २ (ता) सव्वं मे अकरणिज्जं पावं कम्मं ति कटु सामाइयं चरित्तं पडिवज्जइ, सामाइयं चरितं पडिवज्जित्ता देवपरिसं च मणुयपरिसं च आलेखाचित्तभूयमिव ठवेइ। ३७८. उस काल और उस समय में, जब हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्ण पक्ष था। उस मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि के भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन ( ५१३ ) Bhaarana : Fifteenth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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