Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 534
________________ life, pulled out his hair and became a homeless ascetic when the moon was in Uttaraphalguni lunar mansion. Bhagavan attained infinite, supreme, unobstructed, unclouded, complete and perfect 'ultimate knowledge' or Keval-jnana and ultimate perception' or Keval-darshan when the moon was in Uttaraphalguni lunar mansion. He attained nirvana or state of liberation when the moon was in the fifteenth or Swati lunar mansion. विवेचन-श्रमण भगवान महावीर के गर्भागमन से परिनिर्वाण तक के नक्षत्रों का निरूपण प्रस्तुत सूत्र में किया है। इस सम्बन्ध में आचार्यों के दो मत हैं-कुछ आचार्य गर्भ-संहरण को कल्याणक नहीं मानते, तदनुसार पंच-कल्याणक इस प्रकार बनते हैं-(१) गर्भ, (२) जन्म, (३) दीक्षा, (४) केवलज्ञान, और (५) परिनिर्वाण। किन्तु कुछ आचार्य गर्भ-संहरण क्रिया को कल्याणक में मानकर प्रभु के ६ कल्याणक की मान्यता रखते हैं। __ प्रस्तुत सूत्र में 'उस काल और उस समय' शब्द का प्रयोग सूचित करता है उस काल-चौथे आरे के अन्तिम समय में तथा उस समय जिस समय भगवान गर्भ में आये। __पंच हत्थुत्तरे-हस्त (नक्षत्र) से उत्तर हस्तोत्तर है, अर्थात् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र। नक्षत्रों की गणना करने से हस्त नक्षत्र जिसके उत्तर में (बाद में) आता है, वह नक्षत्र हस्तोत्तर कहलाता है। 'समणे भगवं महावीरे'-भगवान महावीर के ये तीन विशेषण मननीय हैं। 'समण' के तीन रूप होते हैं-श्रमण, शमन और समन-'सुमनस्'।' श्रमण का अर्थ क्रमशः क्षीणकाय, आत्म-साधना के लिए स्वयं श्रम करने वाला और तपस्या से खिन्न तपस्वी श्रमण कहलाता है। कषायों को शमन करने के कारण शमन, तथा सबको आत्मौपम्य दृष्टि से देखने के कारण समन और राग-द्वेषरहित मध्यस्थ वृत्तियुक्त होने से सुमनस् या समनस् कहलाता है। जिसका चित्त सदा कल्याणकारी चिन्तन में लगा रहता हो, वह भी समनस् या सुमनस् कहलाता है। भगवान का अर्थ है-जिसमें समग्र ऐश्वर्य, रूप, धर्म, यश, श्री और प्रयत्न ये ६ भग हों। आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने भग के १४ अर्थ किये हैं। १. (क) दशवैकालिक नियुक्ति, गा. १५४-१५६ ‘समण' शब्द की व्याख्या (ख) अनुयोग द्वार १२९-१३१ (ग) “सह मनसा शोभनेन, निदान-परिणाम-लक्षण-पापरहितेन चेतसा वर्तते इति सुमनसः।" -स्थानांग ४/४/३६३ टीका (घ) “श्राम्यते तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणः।" -सूत्रकृतांग १/१६/१ टीका (ङ) “श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः।" -दशवै. हारि. टीका, पत्र ६८ आचारांग सूत्र (भाग २) ( ४८० ) Acharanga Sutra (Part 2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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