Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 555
________________ ३६३. बंभम्मि य कप्पम्मि बोद्धव्वा कण्हराइणो मज्झे। लोगंतिया विमाणा अट्ठसु वत्था असंखेज्जा ॥५॥ ३६४. एते देवनिकाया भगवं बोहिंति जिणवरं वीरं। सव्वजगज्जीवहियं अरहं ! तित्थं पवत्तेहि ॥६॥ ३६२. कुण्डलधारी वैश्रमण देव और महान ऋद्धिधारी लोकान्तिक देव १५ कर्म-भूमियों में (होने वाले) तीर्थंकर भगवान को प्रतिबोधित करते हैं (यह उनका जीताचार है)॥४॥ ३६३. ब्रह्मकल्प (पंचम देवलोक) में आठ कृष्णराजियों के मध्य में आठ प्रकार के लोकान्तिक विमान असंख्यात योजन विस्तार वाले समझने चाहिए॥५॥ ३६४. ये सब देवनिकाय (आकर) भगवान वीर जिनेश्वर को बोधित (विनम्र विज्ञप्ति) करते हैं-“हे अर्हन् देव ! सर्वजगत् के जीवों के लिए हितकर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करें"॥६॥ DISCOURSE OF LOKANTIK GODS 362. The Vaishraman gods wearing earrings and Lokantik gods having miraculous powers give formal advise to Tirthankars (the souls who are to become Tirthankars in the 15 karma-bhumis or lands of endeavour) (this is their traditional duty). (4) 363. In the Brahmakalpa (the fifth dimension of gods) between the eight Krishnarajis (black areas in space) there are eight Lokantik abodes of gods of innumerable yojan spread. (5) 364. They all come from there divine abodes and humbly request Vir Jineshvar—“O Arhan Dev ! Please establish the religious ford (Tirth) for benefit of all beings of all worlds.” (6) ___ विवेचन-तत्वार्थसूत्र ४/२५ के अनुसार भी ‘ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः' लोकान्तिक देवों का ब्रह्मलोक में निवास है, अन्य कल्पों में नहीं। ब्रह्मलोक को घेरकर आठ दिशाओं में आठ प्रकार के लोकान्तिक देव रहते हैं। तत्वार्थसूत्र में ८ लोकान्तिक देवों के नाम इस प्रकार गिनाए हैं(१) 'सारस्वताऽदित्य-३ वन्ह्यरुण-४ गर्दतोय-५ तुषिताऽ-६ व्याबाध-७ मरुतोऽरिष्टाश्च ८।' यदि वन्हि और अरुण को अलग-अलग मानें तो इनकी संख्या ९ हो जाती है। ८ कृष्णराजियाँ हैं, दो-दो कृष्णराजियों के मध्य भाग में ये देव निवास करते हैं। मध्य में अरिष्ट रहते हैं। इस प्रकार भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन ( ५०१ ) Bhaavana : Fifteenth Chapter 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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